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Chayavaad Aur Mahadevi Varma | 1 Best महादेवी वर्मा का काव्य

Chayavaad Aur mahadevi Varma
Chayavaad Aur Mahadevi Varma

Chayavaad Aur mahadevi Varma – हिन्दी कविता में छायावाद युग द्विवेदी युग के उपरान्त आया। द्विवेदी युग की कविता नीरस, उपदेशात्मक और इतिवृत्तात्मक थी।

छायावाद में इसके विरूद्ध विद्रोह करते हुए भावान्मेश युक्त कविता लिखी गई। छायावादी काव्य प्राचीन संस्कृति साहित्य, मध्यकालीन हिन्दी साहित्य से भी प्रभावित हुई।

इसमें बौद्धदर्शन और सर्ववादी दर्शन का भी प्रभाव लक्षित होता है। छायावाद युग उस सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरण का सार्वभौम विकास काल था, जिसका आरम्भ राष्ट्रीय परिधि में भारतेन्दु युग से हुआ था।

छायावादी कवियों के काव्य में सूक्ष्म भावात्मक दर्शन का ही नहीं, बल्कि छाया से उसके सूक्ष्मकला अभिव्यंजना का भी परिचय प्राप्त होता है। कवियों का काव्यकला में वाच्यार्थ की अपेक्षा लक्षणिकता और घ्वन्यात्मकता है।

शैली में राग की नवीन व्यंजकता भी परिलक्षित होती है। भाव के अनुरूप ही छायावाद की भाषा और छंद में भी रागात्मकता और रसात्मकता की मनोहरता परिलक्षित होती है।

ब्रजभाषा के पश्चात छायावाद के माध्यम से गतिकाव्य का पुनरूथान हुआ। छायावादी युग के प्रतिनिधि कवि – जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पंत, महादेवी वर्मा हैं इन्हें छायावाद के चार स्तम्भ भी कहा गया।

गीतकाव्य के पश्चात छायावाद में महाकाव्य की रचना की लहर चल पड़ी थी। छायावादी कवि स्वात्म के भाव के साथ एकान्त के स्वगत जगत् से सार्वजनिक जगत् की ओर अग्रसर हुए।

प्रसाद जी की कामायनी और पंत जी का लोकायतन इसका सुन्दर प्रमाण है। महादेवी वर्मा का काव्य छायावाद की अद्भुत उपलब्धि रही है।

महादेवी वर्मा के काव्य में छायावाद की विभूतियों को निरखने से पूर्व छायावाद का अर्थ और परिभाषा पर दृष्टिपात करेंगे। तो आइए सबसे पहले छायावाद के अर्थ का अध्ययन करें-

छायावाद का अर्थ

छायावादी शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहां उसका सम्बन्ध काव्य वस्तु से होता है।

अर्थात जहा कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यन्त चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। इस अर्थ का दूसरा प्रयोग काव्यशैली या पद्धति विशेष के व्यापक अर्थ में होता है।

छायावाद का सामान्य अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन। छायावादी कवि को अज्ञात सत्ता के प्रति एक विशेष आकर्षण रहा है।

वह प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ में इसी सत्ता के दर्शन करता है। उसका इस अनंत के प्रति प्रमुख रूप से विहमय तथा जिज्ञासा का भाव है। इनका रहस्य जिज्ञासामूलक है,  निराला तत्व ज्ञान के कारण,  तो पंत प्राकृतिक सौन्दर्य से रहस्योन्मुख हुए।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी छायावाद के दो अर्थ बताते हुए समस्त छायावाद कवियों के बीच महादेवी की एकांतता अनन्यता का उल्लेख किया है। उनका मत इस प्रकार है –

“छायावाद के भीतर धीरे – धीरे काव्यशैली का बहुत अच्छा विकास हुआ, इसमें संदेह नहीं। उनमें भावावेश की आकुल व्यंजना, लाक्षणिक्ता वैचित्य, मूर्त प्रत्यक्षीकरण, भाषा की वक्रता, विरोध चमत्कार, कोमल पद विन्यास इत्यादि काव्य का रूप संघटित करने वाली प्रचुर सामग्री दिखाई पड़ी है।“

छायावाद की कालावधि सन् 1917 से 1936 तक मानी गई है। रामचन्द्र शुक्ल जी ने छायावाद का प्रारम्भ 1918 ईस्वी से माना है क्योकि छायावाद के प्रमुख कवियों पंत, प्रसाद, निराला ने अपनी रचनाए इसी वर्ष के आस – पास लिखनी प्रारम्भ की थी।

1918 में प्रसाद का ‘झरना’ प्रकाशित हो चुका था। 1916 मे निराला जी की कविता ‘जूही की कली’ 1918 में पंत के ‘पल्लव’ की रचना हुई।

छायावाद की परिभाषा               

छायावाद अपने युग की अत्यन्त व्यापक प्रवृत्ति रही है किन्तु विचारक व समालोचक छायावाद की परिभाषा में एक मत नही रहे विभिन्न विद्वानों ने छायावाद की परिभाषा भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत की।  

महादेवी वर्मा ने छायावाद को स्पष्ट करते हुए कहा –

”वर्तमान आकाश से गिरी हुई संबंध रति वस्तु न होकर भूतकाल का ही बालक है जिसके जन्म का रहस्य भूतकाल में ही ढूंढा जा सकता है। हमारे छायावाद के जन्म का रहस्य भी ऐसा ही है।

मनुष्य का जीवन चक्र की तरह घूमता रहता है। स्वच्छंद घूमते घूमते थक कर वह अपने लिए सहस्त्र बंधनों का आविष्कार कर डालता है।

और फिर बंधनों से ऊब कर उनकों तोड़ने में अपनी सारी शक्तियां लगा देता है। छायावाद के जन्म का मूलकारण भी मनुष्य के इसी स्वभाव में छिपा हुआ है।“

नामवर सिंह ने लिखा है कि –

“कबीर, सुर, तुलसी के करुणा विगलित आर्त आत्म – निवेदन में भी परिणत वय और धीर स्वभाव का संगम है। किन्तु छायावादी कवि में उच्छ्वास भावुकता का अबाध उद्गार है, यहाँ तक कि भावुकता छायावाद का पर्याय हो गई।“

उपर्युक्त वर्णित परिभाषाओं को सर्मान्वत करते हुए हम कह सकते हैं कि – संसार के प्रत्येक पदार्थ में आत्मा के दर्शन करके तथ प्रत्येक प्राण में एक ही आत्मा की अनुभूति करके इस दर्शन और अनुभूति करके इस दर्शन और अनुभूति को लाक्षणिक और प्रतीक शैली द्वारा व्यक्त करना ही छायावाद है।

छायावाद और महादेवी वर्मा का काव्य

महादेवी वर्मा का काव्य छायावाद की समस्त विशेषताओं से परिपूर्ण है। महादेवी के काव्य में छायावाद की प्रधान और महत्वपूर्ण विशेषताएं पाई जाती हैं –

  • वैयक्तिकता
  • स्थूल प्रेम के स्थान पर सूक्ष्म अतीन्द्रिय प्रेम
  • मानवीकरण की प्रवृति
  • राहस्यात्मकता
  • सूक्ष्म aप्रस्तुत द्वारा प्रस्तुत का संकेत तथा लाक्षणिक प्रयोग
  • पीड़वाद एवं करुणावाद
  • दार्शनिकता
  • कलात्मकता
  • प्रकृति चित्रण का प्राधान्य
  • जिज्ञासा एवं कौतूहल का प्राधान्य
  • नाद संवेदना का सूक्ष्म सार्थकतायुक्त प्रयोग
  • चित्रात्मकता
  • प्रतिकात्मकता
  • उक्ति वैचित्य से अस्पष्टता 
Chayavaad Aur mahadevi Varma

महादेवी जी के छायावाद के विषय में डॉ नगेन्द्र की सम्मति इस प्रकार है –

“महादेवी के काव्य में हमें छायावाद का शुद्ध अमिश्रित रूप मिलता है। छायावाद की अंतर्मुखी अनुभूति अशरीर प्रेम जो वाह्य तृप्ति न पाकर अमांसल सौन्दर्य की सृष्टि करता है,

मानव और प्रकृति चेतन के संस्पर्श, रहस्य चिंतन (अनुभूति नहीं), तितली के पंखों और पंखुडियों से चुराई हुई कला और इन सबके ऊपर स्वप्न सा पूरा हुआ एक बायवी वातावरण, ये सभी तत्व जिसमें घुले मिलते हैं,

वह है महादेवी की कविता। महादेवी ने छायावाद को पढ़ा नहीं, अनुभव किया है।“

आचार्य नंददुलारे बाजपेई ने छायावाद की समास शैली से महादेवी जी की पृथकता को छायावाद में स्थान रखते हुए भी उनकी अपनी मौलिकता का द्योतक बताया है –

“छायावाद की साहित्य शैली में एक नई दिशा का आभास, महादेवी जी के काव्यक्षेत्र में प्रवेश करने पर प्राप्त हुआ है। उनका काव्य पूर्णत: रहस्ययोन्मुखी और एकांतिक है। छायावाद की समास शैली से उनकी पृथकता स्वीकार करनी होगी।“

प्रेम और वेदना ने महादेवी जी को रहस्योन्मुख किया तो प्रसाद ने उस परमसत्ता को अपने बाहर देखा। महादेवी जी के काव्य में रहस्य साधना की दृढ़ता दृष्टिगत होती है। महादेवी के काव्य में रहस्यवाद के रमणीय दर्शन मिलते है –

सुनहरी आशाओं का छोर

बुलाएगा इसको अज्ञात

किसी स्मृति वीणा का राग

बना देगा इसको उद्भ्रांत।

(नीहार, महादेवी वर्मा, पृष्ठ संख्या 65 )

प्रस्तुत पंक्तियों में विराट सत्ता के रहस्य को जानने की उत्सुकता महादेवी जी के मन में उत्पन्न होती हैं-

पर शेष नहीं होगी वह मेरे प्राणों की क्रीडा

तुमको पीड़ा में ढूंढा, तुममें ढूंढूगी पीड़ा।

(नीहार, महादेवी वर्मा, पृष्ठ संख्या 38)

महादेवी जी अपनी पीड़ा में भी अपने प्रिय को ही ढूँढती है, अतः छायावादी काव्य की अभिव्यजंना पद्धति भी नवीनता और सरसता लिए हुए है।

छायावादी काव्य में जीवन की सूक्ष्म-निभूत स्थितियों को आकार प्राप्त हुआ, इसलिए छायावादी शैली में मानवीकरण का विशेष महत्व रहा है। महादेवी जी की मानवीकरण चित्रण से युक्त पक्तियां प्रस्तुत है-

झर चुके तारक-कुसुम जब

रश्मियों के रजत-पल्लव,

सन्धि में आलोक-तम की

क्या नही नभ जानता तब,

पार से, अज्ञात वासन्ती दिवस – रथ चल चुका है।

(दीपशिखा, महादेवी वर्मा, पृष्ठ संख्या 67)

प्रस्तुत पंक्तियों में अर्थ के तीन पक्षों का एक साथ निर्वाह किया गया है। यहा प्रतिपाद्य तो है जीवन की साधना का वह अन्तिम क्षण जब इस लौकिक जीवन की समाप्ति के बाद एक लोकात्तर आनन्दमय चेतना का आभास होने लगता है,

किन्तु इस अर्थ के लिए दोहरा अप्रस्तुत है यों कहना चाहिए कि अप्रस्तुत दर- अप्रस्तुत है।

एक अप्रस्तुत है प्रातः काल का, जब तारे तथा चन्द्रमा की किरणें धुमिल होने लगती हैं और बासन्ती प्रकाश वाले सूर्य का रथ क्षितिज के उस ओर से आता दिखाई देता है तथा दूसरा अप्रस्तुत है पतझर की समाप्ति की बेला का,

जब कुसुमों और पल्लवों के झर जाने के बाद बसन्त के आगमन की सूचना मिलने लगती है। आलोक और तम की सन्धि का प्रयोग मृत्यु के लिए हुआ है। और नभ की चेतना के लिए।

इस प्रकार अर्थगाम्भीर्य में समानता होने पर भी छायावादी काव्य पंक्तियों में अभिव्यंजना की सूक्ष्मता का वैशिष्ट्य भी देखने को सुलभ हैं।

महादेवी जी को तो वेदना की कवयित्री ही कहा जाने लगा यही नहीं आधुनिक मीरा कहकर उनकी प्रेमभावना को चरम आध्यात्मिक पर पर स्थापित कर दिया गया वह अपने वेदना विह्व्ल आसुओं की तुलना घन से करती हुई कहती है-

आंसुओं का कोप उर दृग अश्रु की टकसाल

तरल जलकण से बने घन सा क्षणिक मृदुगात।

(नीरजा, महादेवी वर्मा, पृष्ठ संख्या 19)

’वेदना या दुखवाद’ भारतीय साहित्य के लिए कोई नवीन दर्शन नहीं है। वैदिक युग से ’दुखवाद‘ भारतीय साहित्य में संबद्ध रहा है । षट् दर्शन, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन में वह गूँजती रही है।

काव्यशास्त्रीय मूल्यों की दृष्टि से भी छायावाद प्राचीन सिद्धान्तों – विशेषकर रस – सिद्धांत के अनुरूप है। और जहा तक दार्शनिक सिद्धान्तों का सम्बन्ध है, छायावादी काव्य सर्ववाद, कर्मवाद, वेदान्त शैव दर्शन,

अद्वैतवाद, भक्ति आदि पुराने सिद्धान्तों को ही व्यक्त करता दिखाई देता है। महादेवी जी ने छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद को माना है और प्रकृति को उसका साधन।

उनके छायावाद ने मनुष्य के हृदय औेर प्रकृति के उस सम्बन्ध में प्राण डाल दिए जो प्राचीन काल से बिम्ब प्रतिबिम्ब के रूप् में चला आ रहा था।

इनके अनुसार छायावाद की कविता प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध स्थापित करके हमारे हृदय में व्यापक भावानुभूति उत्पन्न करती है और हम समस्त विश्व के उपकरणों से एकात्मभाव सम्बन्ध जोड़ लेते हैं।

महादेवी के काव्य में करूणा और वेदना का व्यापक चित्रण मिलता हैं। कवयित्री रहस्यानुभूति की प्रत्यक्ष विवृत्ति करती हैं। हिन्दी साहित्य में जितने कवियों ने काव्य में विषाद  व दुख भावना दे, इनमें से महादेवी की रचनाओं में करूणा,

वेदना और विषाद का व्यापक चित्रण मिलता है इन्होंने अपनी कविता में विषाद भावना  को मुख्य स्थान प्रदान किया। विषाद महादेवी के व्यक्तित्व में इतना घुलमिल गया  है कि – वह विषादहीन जीवन की कल्पना मात्र भी नहीं कर पाती।

यही कारण है कि उन्होंने सम्पूर्ण जीवन एवं समस्त जगत की समस्त वेदना को ही अपने भीतर समाविष्ट कर लिया। महादेवी वेदना की पराकाष्ठा को मधुमय पीड़ा कहती है और अपने अराध्य को दुख के भावों में छिपा लेना चाहती है।

कवयित्री का काव्य विश्व के कण कण में करूणा की पावन लहर उमड़ती है। इनकी करूणा व वेदना जीवन में स्फूर्ति एवं प्रेरणा का संचारण करती है।

यह जीवन के संघर्षों से पार होने की शक्ति प्रदान करती है। ऐसी उज्जवल, वित्र  और उदात्त भावना उत्पन्न करती है जिसमें दुख भी पवित्र होकर विषाद के तम से आनन्दानुभूति के प्रकार को प्राप्त करता है।

व्यष्टि की भावना से निकल कर समष्टिगत हो जाता है। करूणा एवं वेदना को महत्व प्रदान करते हुए वे स्वयं कहती है कि करूणा हमारे जीवन ओर काव्य में बहुत गहरा सम्बन्ध रखती है।

अत: स्पष्ट होता है कि महादेवी वर्मा का काव्य छायावाद की आदर्श व उत्कृष्ट रचनाए रही हैं। महादेवी वर्मा का काव्य भले ही पंत जी के काव्य के समान शिल्प,

निराला के काव्य की भाति उद्गम वेग और प्रसाद जी के काव्य सा काव्य दर्शन संगम धारण नही करता, फिर भी उनका काव्य एक देवी की अविचलित साहित्य रचना और साधना का प्रतीक है।

अद्भुत, अविचल, अविरल काव्य धारा प्रवाहित करने वाले पवित्र निर्झर के समान महादेवी जी के काव्य के संवेदनशील अध्ययन को यही विराम देती हूँ।

अगले पोस्ट में महादेवी वर्मा के काव्य में बौद्धदर्शन के  प्रभाव संबंधी विवरण को सम्मिलित करने का सफल प्रयास करूंगी। आप सभी स्वस्थ रहें, मस्त रहें, सुरक्षित रहें। नमस्कार।

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