Hindi Grammar
Hindi Grammar हिन्दी भाषा को भली प्रकार समझने का उत्तम साधन है। हिन्दी भाषा को सीखने के लिए व्याकरण को समझना अति आवश्यक है।
आधुनिक समय में हिन्दी व्याकरण अधिकांश प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
हम कह सकते हैं कि प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता पाने के लिए हिन्दी व्याकरण का ज्ञान महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
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तो आइए आज हम Hindi Grammar का सामान्य परिचय प्राप्त करते हुए हिन्दी व्याकरण के महत्वपूर्ण अंगों का भी ज्ञान प्राप्त करें।
हिन्दी व्याकरण
सभी मनुष्य भाषा के एक ही रूप को एक ही प्रकार से समझें, इसके लिए भाषा के स्वरूप को और व्यवस्थित किया गया तथा नियमों में बाँधा गया।
इन नियमों की जानकारी देने वाले शास्त्र को “व्याकरण” कहा जाता है। अत: सरल शब्दों में –
व्याकरण वह शास्त्र है जिसके द्वारा हम किसी भी भाषा के शुद्ध रूप का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
भाषा की मूल ध्वनियों के लिखित चिन्हों को ‘वर्ण’ कहते है। ‘वर्ण’ भाषा की सबसे चोटी इकाई होती है।
वर्णों के मेल से शब्द बनते हैं और शब्दों के मेल से वाक्य का निर्माण होता है।
वाक्य में प्रयुक्त शब्द ‘पद’ कहलाते हैं। वाक्य द्वारा मानव अपने विचारों और भावों का आदान – प्रदान करता है।
इस प्रकार व्याकरण के चार अंग होते हैं। अब आइए व्याकरण के चार अंगों को विस्तार से समझें –
हिन्दी व्याकरण के अंग
- वर्ण विचार
- पद विचार
- शब्द विचार
- वाक्य विचार
वर्ण विचार (1)
वह छोटी से छोटी मूल ध्वनि जिसके खंड न हो सकें, वह वर्ण कहलाती है। यह भाषा की ऐसी इकाई है जिसके टुकड़े नही हो सकते।
जैसे – अ, क्, ख्, ज्, म् न् आदि।
वर्णों के समूह को वर्णमाला कहते हैं। हिन्दी व्याकरण में कुल 49 वर्ण हैं। इनमें 11 स्वर, 33 व्यंजन, 2 आयोगवाह तथा 3 संयुक्ताक्षर हैं।
उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद किए गए हैं।
- स्वर
- व्यंजन
स्वर (A)
वे वर्ण जो किसी अन्य वर्ण की सहायता के बिना स्वतंत्र रूप से बोले जा सकें। उन्हें स्वर कहते हैं। इनकी संख्या 11 होती है।
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ = 11 स्वर
स्वर दो प्रकार के होते हैं –
ह्रस्व, मूल अथवा एकमात्रिक स्वर तथा
दीर्घ, संधि अथवा द्विमात्रिक स्वर
ह्रस्व, मूल अथवा एकमात्रिक स्वर
जिनके उच्चारण में सबसे कम समय लगता है, उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। अ, इ, उ तथा ऋ ये चार ही ह्रस्व, स्वर होते हैं।
दीर्घ, संधि अथवा द्विमात्रिक स्वर
जिनके उच्चारण में ह्रस्व स्वर से दुगुना समय लगता है, उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। दो ह्रस्व स्वरों के मेल से बनने के कारण इन्हें संधि स्वर भी कहते हैं।
दीर्घ स्वर सात होते हैं – आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ। ये दो स्वरों के मेल से बनते हैं जैसे –
अ + अ = आ
इ + इ = ई
उ + उ = ऊ
अ + इ = ए
अ + ई = ऐ
अ + उ = ओ
अ + ओ = औ।

ह्रस्व और दीर्घ स्वरों के अतिरिक्त स्वरों का एक और भेद भी होता है, जिसे प्लुत स्वर कहते हैं। किसी को दूर से पुकारते समय हम स्वर को लंबा करके उच्चारण करते हैं।
इस लंबे उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी अधिक समय लग जाता है। इस प्रकार बोले गए स्वर को प्लुत स्वर कहते हैं।
इन्हें प्रकट करने स्वर के आगे ३ चिन्ह लगाते हैं जैसे – ओ३म्।
व्यंजन (B)
जो वर्ण स्वरों की सहायता के बिना न बोले जा सकें, उन्हें व्यंजन कहते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जो वर्ण स्वरों की सहायता से ही बोले जाते हैं वे व्यंजन कहलाते हैं।
क् आदि वर्णों के नीचे जो तिरछी लकीर लगाई जाती है, उसे हलंत चिन्ह कहते हैं। जैसे – क्, ख् आदि।
चूकि व्यंजन स्वरों की सहायता के बिना नही बोले जाते, अत: हिन्दी वर्णमाला में व्यंजनों को अ मिल कर लिखा जाता है।
व्यंजन तीन प्रकार के होते हैं –
स्पर्श , अंत:स्थ तथा ऊष्म व्यंजन
- स्पर्श व्यंजन
‘क’ से ‘म’ तक 25 वर्ण स्पर्श व्यंजन के अंतर्गत आते हैं। ये पाँच वर्गों में बांटे गए हैं – क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग और प वर्ग।
प्रततेक वर्ग का नाम उसी वर्ग के पहले वर्ण से प्रारंभ होता है। इनका उच्चारण करते समय जिह्वा का कंठ आदि उच्चारण स्थानों से पूरा स्पर्श होता है, इसी लिए इन्हें स्पर्श व्यंजन कहते हैं।
- अंत:स्थ व्यंजन
ये व्यंजन स्वरों और व्यंजनों के मध्य में स्थित होते हैं इस लिए इन्हें अंत:स्थ व्यंजन कहते हैं। ये चार होते हैं – य, र, ल, व।
ये आधे स्वर और आधे व्यंजन भी कहे जा सकते हैं। इनके उच्चारण में जिह्वा विशेष सक्रिय नही रहती जैसा कि व्यंजनों के उच्चारण में होती है।
- ऊष्म व्यंजन
इन व्यंजनों में श्वास की प्रबलता के कारण एक प्रकार की ऊष्मा उत्पन्न होती है। इसलिए इन्हें ऊष्म व्यंजन कहा जाता है।
ये भी चार होते है – श, ष, स, ह।
क वर्ग | क | ख | ग | घ | ड. | |||
च वर्ग | च | छ | ज | झ | ञ | |||
ट वर्ग | ट | ठ | ड | ढ | ण | |||
त वर्ग | त | थ | द | ध | न | |||
प वर्ग | प | फ | ब | भ | म | |||
य | र | ल | व | |||||
श | ष | स | ह | |||||
=33 व्यंजन
अयोगवाह
अं (अनुस्वार) तथा अः (विसर्ग) अयोगवाह अथवा असंगत वर्ण कहलाते हैं। ये दोनों स्वर तथा व्यंजन के मेल से बनते हैं।
इनमें स्वर का उच्चारण पहले होता है और व्यंजन का बाद में। जैसे –
अ + ड्. = अं
अ + ह् = अः।
संयुक्ताक्षर
दो व्यंजनों के मेल से बनने वाले वर्णों को संयुक्ताक्षर कहते हैं। ये तीन होते हैं, जो इस प्रकार हैं –
क् + ष = क्ष
त् + र = त्र
ज् + = ज्ञ
पद परिचय (2)
जब शब्द वाक्य से अलग स्वतंत्र रूप से होता है तब वह शब्द कहलाते हैं, किन्तु जब शब्द वाक्य के अंतर्गत होते हैं,
तब विभक्ति युक्त होकर संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया अथवा अव्यय का कार्य करते हैं और अपना रूप बदलते हैं। शब्द के इसी विभक्ति युक्त रूप को पद कहते हैं।
जैसे – वह छोटा बच्चा धीरे धीरे चल रहा है।
बच्चा – संज्ञा पद
वह – सर्वनाम
छोटा – विशेषण
चल रहा है – क्रिया पद
धीरे धीरे – अव्यय पद
पदबंध
किसी वाक्य में जब कई पद मिलकर एक ही पद का अर्थ प्रकट करते हैं तो इस पद समूह को पदबंध कहते है।
जैसे – गरजते और चमकते हुए बादल
शब्द विचार (3)
अक्षरों के सार्थक समूह को शब्द कहते हैं। जैसे – भ् + ओ + ज् + अ + न् + अ = भोजन।
शब्दों के प्रकार
अर्थ की दृष्टि से शब्दों के प्रकार
भाषा की दृष्टि से शब्दों के प्रकार
व्युत्पत्ति की दृष्टि से शब्दों के प्रकार
स्रोत की दृष्टि से शब्दों के प्रकार
प्रयोग की दृष्टि से शब्दों के प्रकार
अर्थ की दृष्टि से शब्दों के प्रकार
अर्थ के आधार पर शब्द दो प्रकार के होते हैं – सार्थक शब्द और निरर्थक शब्द।
जिन शब्दों से निश्चित अर्थ निकलता हैं, वे सार्थक शब्द कहलाते हैं। जैसे – गाय, मेज, पेड़, चलना, भागना आदि।
जिन शब्दों का कोई अर्थ नही होता, वे निरर्थक शब्द कहलाते हैं। जैसे – खटर – पटर, गड गड आदि।
भाषा की दृष्टि से शब्दों के प्रकार
भाषा के आधार पर शब्द दो प्रकार के होते हैं – कोशीय शब्द और व्याकरणिक शब्द।
भाषा में अधिकतर कोशीय शब्दों का प्रयोग होता है, ये शब्द अर्थवान और सार्थक होते हैं। जैसे –
हम अपने मकान में रहते हैं।
हम पुस्तक पढ़ते हैं।
इन वाक्यों में रहते और पढ़ते कोशीय शब्द हैं जिनका अर्थ होता है क्रमश: निवास करना और पढ़ना।
व्याकरणिक शब्द वे शब्द हैं, जो विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए व्याकरणिक नियमों से अनुबंध हो जाते हैं। जैसे –
हम पाँच वर्षों से अपने मकान में रह रहे हैं।
वह एक वर्ष से अपनी पुस्तक पढ़ रहा है।
इन वाक्यों में रहना और पढ़ना के साथ रहे का प्रयोग हुआ है। उनके जुडने से निरन्तरता का बोध होता है।
यहाँ पर निरन्तरता का भाव दिखाने के कारण शब्दों का व्याकरणिक रूप बन गया है।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से शब्दों के प्रकार
बनावट के आधार पर शब्दों के तीन प्रकार होते हैं – रूढ शब्द, यौगिक शब्द और योगरूढ शब्द।
जिन शब्दों के खंड न किए जा सके और यदि खंड किए जाए तो कोई सार्थक अर्थ न निकले, वे रूढ शब्द कहलाते हैं। जैसे – घोडा, मोर, कला, काला आदि।
जोई दो या दो से अधिक शब्दों के मेल से बने हो, वे यौगिक शब्द कहलाते हैं। जैसे – देवालय = देव + आलय, पाठशाला = पाठ + शाला।
जो शब्द यौगिक होने पर भी किसी सामान्य शब्द को प्रकट न करें तथा किसी विशेष अर्थ को प्रकट करें तो उन्हें योगरूढ शब्द कहते हैं। जैसे – पंकज, संसद।
स्रोत की दृष्टि से शब्दों के प्रकार
इस आधार पर शब्द चार प्रकार के होते हैं – तत्सम, तद्भव, देशी तथा विदेशी।
तत्सम शब्द का शाब्दिक अर्थ यही तत् = उसके, सम = समान अर्थात उसके (संस्कृत) के समान। अत: तत्सम शब्द संस्कृत के हैं और मौलिक रूप मे ही बिना परिवर्तन के हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं। जैसे – अंकुर, अद्भुत, अंबुज, कंठ, खग आदि।
तद्भव शब्द संस्कृत शब्दों के विकृत रूप हैं और इसी रूप में ही ये हिन्दी भाषा में प्रयुक्त होने लगे हैं। जैसे – अचरज, आँख, ऊँट, गाँव, गाहक आदि।
देशी शब्दों का संस्कृत शब्दों से कोई संबंध नही होता। ये शब्द भरत की भिन्न भिन्न प्रांतीय भाषाओं से अथवा आदिम निवासियों की भाषाओं से हिन्दी में आए हैं। जैसे – लकड़ी, पगड़ी, पेट, लोटा आदि।
विदेशी शब्द विदेशी भाषाओं से हिन्दी में आ गए हैं। जैसे – अरबी, फारसी, अंग्रेजी, तुर्की तथा फ्रेंच आदि भाषाओं के शब्द
प्रयोग की दृष्टि से शब्दों के प्रकार
इस दृष्टि से शब्द दो प्रकार के होते हैं – विकारी, अविकारी
विकारी वे शब्द हैं जिनके रूप लिंग, वचन और कारक के आधार पर बदल जाते हैं। जैसे – मैं, मुझे, हमनें, हमारा आदि।
अविकारी वे शब्द होते हैं जिनके रूप में लिंग, वचन और कारक के द्वारा कोई परिवर्तन नही आता अर्थात इनका रूप सदा एक सा रहता है।
इसलिए इनको अवयव भी कहते हैं। जैसे यहाँ, वहाँ, प्रतिदिन, बिना, और, परंतु आदि।
विकारी तथा अविकारी के आधार पर शब्दों के आठ भेद हैं –
विकारी – संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया।
अविकारी – क्रिया विशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक, विस्मयादिबोधक।
वाक्य विचार (4)
वाक्य पदों का वह सार्थक समूह है जो कि व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध और सार्थक हो। जैसे –
मनुष्य सामाजिक प्राणी है।
गंगा एक पवित्र नदी है।
अत: वाक्य की रचना शब्दों के मेल से होती है, किन्तु शब्दों का हर प्रकार से मेल करना वाक्य नही बन जाता।
शब्दों के मेल से वाक्य बनाने के लिए दो बातों का होना आवश्यक है। प्रथम शब्दों को किसी विशेष क्रम में मिलाना और दूसरे, मिले हुए शब्द समूह का सार्थक होना।
वाक्य खंड
वाक्य के दो खंड होते हैं – उद्देश्य , विधेय।
जिसके विषय में कुछ कहा जाए उसे उद्देश्य कहते हैं और जो कुछ कहा जाए, उसे विधेय कहते हैं। जैसे- राम काम करता है। इसमें राम उद्देश्य है तथा शेष वाक्य खंड विधेय में गिना जाएगा।
वाक्यों के भेद
रचना के अनुसार वाक्य के भेद
अर्थ के आधार पर वाक्य के भेद
रचना के अनुसार वाक्य के भेद
इस आधार पर वाक्य के तीन भेद हैं – सरल वाक्य, संयुक्त वाक्य तथा मिश्रित वाक्य।
जिन वाक्यों में एक ही उद्देश्य व एक ही विधेय हो उसे सरल वाक्य कसह्ते हैं। जैसे – अशोक पुस्तक पढ़ता है।
जिस वाक्य में दो या दो से अधिक वाक्य स्वतंत्र होते हुए भी किसी समुच्चयबोधक द्वारा जुड़े हुए हों, उसे संयुक्त वाक्य कहते हैं। जैसे – अशोक पुस्तक पढ़ रहा और कमला खेल रही है।
जिस वाक्य में एक वाक्य प्रधान हो और अन्य वाक्य उसके अधीन हों, उसे मिश्रित वाक्य कहते हैं।
जैसे – मैंने तुम्हारी पुस्तक चुराई यह असत्य है।
अर्थ के आधार पर वाक्य के भेद
इस आधार पर वाक्य के आठ भेद होते हैं –
- सामान्य कथनात्मक
- इच्छार्थक वाक्य
- प्रश्नवाचक वाक्य
- निषेधात्मक वाक्य
- विस्मयादिबोधक वाक्य
- संदेहार्थक वाक्य
- आज्ञार्थक वाक्य
- संकेतार्थक वाक्य
उपसंहार
उपरोक्त वर्णित लेख से हिन्दी व्याकरण संबंधी आवश्यक जानकारी व ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, जो विधयार्थियों के पाठ्यक्रम का भी महत्वपूर्ण विषय है,
साथ ही प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए भी उपयोगी है। हमारी वेबसाइट आपकी सफलता में सहायक बनने का महत्वपूर्ण प्रयास करती है और करती रहेगी।
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