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Hindi Poetry on Corona virus | 5 BEST कोरोनाकाल पर कविता, लॉकडाउन, महामारी का साल

Hindi Poetry on Corona virus

Hindi Poetry on Corona virus

Hindi Poetry on Corona virus वर्तमान महामारी की त्रासदी से प्रभावित मानव जीवन की बदलती लहर का वर्णन करती है। चीन से फैले कोरोना वायरस ने पूरी तरह से विश्व को अपनी चपेट में ले लिया।

साल 2020 से शुरू हुआ इस कोरोना का कहर 2021 में भी नहीं थमा। यह संकलन ना केवल मेरी वेबसाइट पर साझा किया गया एक पोस्ट है,

बल्कि यह स्वरचित कविताओं का संकलन भारतवासियों का दर्द, पीड़ा और जज़्बात हैं। कविता का यह संग्रह मानव की भावनाओं को स्पर्श करता है। संवेदना उत्पन्न करता है।

प्रस्तुत कविताएं संवेदना जाग्रत करने के साथ-साथ स्वार्थ से ऊपर उठकर ऐसी विकट परिस्थिति में जरूरतमंदों की अपनी सामर्थ अनुसार सहायता करने के लिए भी प्रेरित करती है।

क्योंकि यह समय सभी के लिए चुनौतीपूर्ण है। यह समय का चक्र ही है, जो हमारी जिंदगी को तहस नहस कर रहा है। भारतीय गाँव भी इसकी चपेट में आने से बच नहीं पाए।

सन् 2020 से 2021 आ गया और यह नया साल भी इस कहर को शांत नहीं कर पाया। आइए बिना देर किए प्रारंभ करते है, हिन्दी कविताओं का अहसासों से भरा सफर।

पिछले साल से आज तक हम लॉकडाउन के तहत अपने परिवार को कोरोना वायरस के कुप्रभाव से बचाने के लिए अपने घरों में कैद हैं, लेकिन थोड़ी सी भी चूक हमें मुश्किल में डालने के लिए काफी है।

इस महामारी ने मानव जीवन को सभी क्षेत्रों में प्रभावित किया। बेरोजगारी चरमसीमा में पहुँच गई और अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई। शिक्षा, व्यापार, स्वास्थ, व्यवसाय हर ओर इसका कुप्रभाव दिखाई देता है।

यह जीवन की लहर ही है, जो मानव के समक्ष चुनौतीपूर्ण समय को उपस्थित कर रही है। जीवन भी पवन का झोंका है, कभी अपनी शीतलता से सराबोर कर देता है तो कभी तप्त लू बन कर अपने गर्मी से जलाता भी है।

ये जीवन कैसे – कैसे खेल दिखाता है। इक पल हसाता तो अगले ही पल रुलाता भी है।  हिन्दी कविता के इस सफर की पहली कविता साझा कर रही हूँ जो जीवन के विविध रंगों से परिपूर्ण है –

कोरोनाकाल और जीवन

शीतल पवन के झोंकों संग,

बैठी मैं बस यह सोच रही।

जीवन क्या मदमस्त पवन

हर पल अपना रुख मोड़ रही।।

कभी इठलाए कभी सताए।  

कभी दामन से आ लिपट जाए।।

ज्यों स्नेह सागर से प्रेम

भाव बिखेर रही।

जीवन क्या मदमस्त पवन

हर पल अपना रुख मोड़ रही।।

कभी सुनहरे सपने दिखाए।  

कभी काँच सम तोड़ भी जाए।।  

सपनों के सुंदर जीवन में,

क्या वास्तविकता बटोर रही।  

जीवन क्या मदमस्त पवन

हर पल अपना रुख मोड़ रही।।

कभी हसाए कभी रुलाए। 

कभी यादों में झकझोर जाए।। 

बीते हुए पलों को भी,

स्मृतियों में सँजो रही।

जीवन क्या मदमस्त पवन

हर पल अपना रुख मोड़ रही।।

कभी शीतल तन मन कर जाए।

कभी तप्त सागर बन जाए।।

इस गहरे दुख के सागर में,

आशा की पतवार समेट रही।

जीवन क्या मदमस्त पवन

हर पल अपना रुख मोड़ रही।।

लाख सताए लाख जलाए।

हर पल हर क्षण बेचैन कर जाए।।

पर जीवन पथ एक चुनौती

जो हमको आजमा रही।

जीवन क्या मदमस्त पवन

हर पल अपना रुख मोड़ रही।।

कोरोना वायरस का हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर बड़ा नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। पहले हमारी बीमारी के वक़्त अपनों का स्पर्श राहत देता था।

दवाइयाँ जहां हमें शारीरिक रूप से ठीक करती थी, वहीं अपनों का साथ शारीरिक तथा मानसिक दोनों ही उपचार प्रदान करता था।

किन्तु कोरोना की इस वर्तमान महामारी में हम स्वयं अपनों से दूर रहना चाहते हैं। एक अनजाने से डर से की कहीं हमारे अपने इसके चपेट में ना आ जाए।

कलयुग में जहां धन संपत्ति और उच्च स्तर पा कर लोग अपनों को ही नहीं पहचानते थे, आज हमारे उसी नैतिक पतन ने हमें अपनों से कोसों दूर कर दिया है। क्या है यह– शायद कलयुग की बीमारी।

चलिए इस संकलन की अगली कविता पढ़ें जो कलयुग की बीमारी के कुप्रभाव पर प्रकाश डाल रही है –

कलयुग की बीमारी

ये कैसा समय आया है,

अपनों ने दामन छुड़ाया है।

संकट की घड़ी में नज़र

न कोई आया है॥

एकाकीपन ने ऐसा घेरा

लगाया है।

दूर तक मन बस सन्नाटा

ही महसूस कर पाया है॥

बीमारी में अपनों का हाथ

जब सहलाता था।

दवाओं से ज्यादा वह

स्पर्श रंग दिखाता था॥

अब बस अकेले ही साहस

दिखाना है।

एकला ही जीवन है, बस यही

मन को समझाया है। 

क्यूंकी कलयुग की बीमारी ने

खूब कलयुगी रंग दिखाया है।।

हम भारतीय वैश्विकता की दौड़ में दौड़ते हुए खुद को वैश्विक मानते थे। कहाँ गई हमारी वैश्विकता? कैसे हम इस महामारी के समक्ष नत मस्तक हो गए?

हमारे पास कोरोना महामारी से बचाव के लिए पर्याप्त संसाधन क्यों नहीं हैं? क्यूँ प्रत्तेक नागरिक विवश, बेचैन, बेहाल और त्रस्त है, हर पल कोशिश में लगा है कि अपनों की जान बचा सके।

ना जाने कितने बच्चे अनाथ हो रहे है, और हमारे पास स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं नहीं है। क्या मोबाईल व लैपटॉप का इस्तेमाल करना ही स्मार्ट लाइफ जीना है?

क्या सच्चे अर्थों में हम स्मार्ट भारत बना पाएं हैं? क्या यह मानव के अहं का परिणाम है या स्वार्थ, लोभ, लालच का, जवाब कौन देगा?

महामारी का साल

यह कोरोना काल है।

या महामारी का साल है।। 

इस वक़्त हर कोई बेचैन है। 

हर कोई बेहाल है।।

कहीं टूटी साँसे,

कहीं पथराई आंखे,

कहीं अपनों से दूर हुए,

कही हर क्षण मजबूर हुए। 

बेमौत मौत का यह तांडव है।। 

इस वक़्त हर कोई बेचैन है। 

हर कोई बेहाल है।।

कहीं मानवता का दम घुटा,

कहीं रिश्तों का अंत हुआ,

कहीं संवेदना मरती रही,

कहीं जिंदगी बिखरती रही।

जिंदगी की चौखट पर

मानव का यह हाल है।।  

इस वक़्त हर कोई बेचैन है। 

हर कोई बेहाल है।।

कहीं प्राण वायु की मार है,

कहीं उसका भी व्यापार है,

मानव को मानवता सिखला दे,

अब ऐसा ना कोई आधार है। 

ऐसा मानव जीवन मनुष्यता

हेतु बेकार है।। 

इस वक़्त हर कोई बेचैन है। 

हर कोई बेहाल है।।

कहीं वक़्त का यह चक्र,

रुक रुक थम थम चलता है। 

कहीं वक़्त पकड़े तो हाथों से

फिसलता है। 

यही कलयुगी जीवन की पैनी

सी धार है।। 

इस वक़्त हर कोई बेचैन है। 

हर कोई बेहाल है।।

चलता रहेगा चक्र ये,

फिसलता रहेगा वक़्त ये,

फिर होगा रौशन सवेरा,

फिर रुपहली चाँदनी होगी। 

यही इस दुख के सागर

में आशा की पतवार है।। 

इस वक़्त हर कोई बेचैन है। 

हर कोई बेहाल है।।

कोरोना महामारी के चलते साल 2020 से 2021 तक हम देश भर में लॉकडाउन की स्थिति के दर्शन कर रहे हैं। यह लॉकडाउन हमें हमारी लापरवाही का बोध कराती है।

हम स्वयं से स्वास्थ्य सुरक्षा संबंधी नियमों का पालन क्यूँ नहीं कर सकते। थोड़ी स्थिति ठीक होते ही मास्क ना लगाना, बाजारों में भरपूर खरीददारी करना,

त्यौहारों में सामाजिक दूरी को भूला देना और पारिवारिक उत्सवों में सारे नियमों की धज्जियां उड़ा देना। क्या ये सभी हमारी लापरवाही की परिचायक नहीं हैं?

ऐसी स्थिति में महामारी के वायरस को फैलने के पर्याप्त मौके मिल गए और अब स्थिति हमारे सामने है। 80% लोगों की बेपरवाही उन 20% लोगों पर भी भारी पड़ जाती है,

जो ऐतिहात बरतते हैं। आज हम अपने घरों में बैठ कर अपनी गलतियों का एहसास कर सकते हैं, और उनमें सुधार भी। बस आवश्यकता है अपनी भूलों को समझने की।

प्रस्तुत कोरोनाकाल पर कविता जो मैं साझा कर रही हूँ, यह अवश्य ही लॉकडाउन के परिदृश्य को यथार्थता के धरातल पर प्रकट करने में सफल होगी-

लॉकडाउन

बाजारों गलियों में सन्नाटा दिखता है।

हर ओर हर नजारा वीराना दिखता है।।

अब कोई चेहरा मुस्कुराता नहीं।

अब कोई हाथ मिलाता नहीं।

प्रेम से मिला करते थे गले जिनके,

उनकी भी बाहों में पहरा सा लगता है।।

पसरी हैं हर ओर खामोशियां।

हर नजर में खौफ का समा दिखता है।

मुस्कुरा दे इक पल को तो बेमानी है,

अंदर से हर कोई बिखरा हुआ सा लगता है।।

भावनाओं का सिलसिला चला करता है।  

मोबाइल का सफर जिंदगी से प्यारा लगता है।

आवाज सुन कर सुकून मिलता है जहां,

चेहरा देख कर दिल बहला करता है।।

कहीं संवेदनाओं का दम टूटा लगता है।

कहीं जिंदगी में बिखराव सा फैला है।

कहीं आँखों में आंसुओं की धारा है,

तो कहीं लोभ का प्रभुत्व बढ़ता जाता है।।

वैश्विकता की दौड़ में आगे गए थे जितना।

आज जमाना उतना ही पिछड़ा लगता है।

कुछ तो गलतियों का सिला है ये,

कुछ तो इंसा का गुनाह लगता है।।

खिलेंगी फिर से गलियों की रौनक।

बेखौफ जिंदगी जीने का जज्बा बढ़ता जाता है।

कुछ लम्हों पर ठहर जाएगा वक़्त लेकिन,

जिन लम्हों में अपनों का दामन छूटा सा लगता है।।

 बाजारों गलियों में सन्नाटा दिखता है।

 हर ओर हर नजारा वीराना दिखता है।।

इस विषम स्थिति से भी हम उबर जायेगें। फिर वही रौनक होगी, लेकिन मानव को मानवता का पाठ पढ़ना ही होगा, अंतर्मन में संवेदना जगानी पड़ेगी,

धर्म का डर पैदा करना होगा, ईश्वरीय शक्ति को स्वीकार करना ही होगा, मानवीय घमंड हमें तोड़ना पड़ेगा, प्रकृति को सर्वोपरि मान कर उसकी सुरक्षा करनी होगी।

तभी हम इस चुनौतीपूर्ण युद्ध में लड़ेंगे और जीतेंगे। ईश्वर अवश्य इस विकट परिस्थिति में हमारी प्रार्थना सुनेगा। सच्चे मन से, अहं त्याग कर, स्वार्थ छोड़ के ईश्वर के समक्ष शीश तो झुकाइए।

कोरोना से संबंधित प्रस्तुत काव्यपंक्तियाँ हमें हौसला ना हारते हुए संघर्ष करने की सीख देती है –

Hindi Poetry on Corona virus
हम लड़ेंगे, जीत जाएंगें

आज कठिन जीवन है अपना

हर दिशा में भटक रहे हैं।

दशा ये दयनीय दशा है।। 

हर पल साहस छोड़ रहे हैं। 

पर कल हम उबर जाएंगे।। 

इस सागर से निकाल जाएंगें।

हम लड़ेंगे, जीत जाएंगें।।

 

सूरज की किरणें फैलेंगी।

फिर चाँदनी बिखर जाएंगी।।

मुस्कानें चेहरे पर होंगी।

मन में शांति सँवर जाएगी।। 

कठिन सफर मंजिल मुश्किल है,

फिर भी कदम बढ़ाएंगे। 

हम लड़ेंगे, जीत जाएंगें।।

प्रकृति फिर से सज जाएगी।

कोयल पपीहा बोलेंगे।।  

पिक की तान मन मोहेगी।  

फुहारें झर झर जाएंगी।

खेत फिर से सँवर जाएंगे।

हम लड़ेंगे, जीत जाएंगें।।

शपथ लेंगें स्वीकार करेंगें। 

गलती ना दोहराएंगे।। 

ईश्वरी सत्ता सर्वोपरि है। 

सृष्टि को अनमोल बनाएंगे।। 

वृक्षों पर आशियाने होंगे,

पवन के झोंके आएंगे। 

हम लड़ेंगे, जीत जाएंगें।।

मानव चाहे तो क्या ना कर ले। अपने प्रयासों से इसी सृष्टि को सुहावना बना दे और वीराना भी। फैसला मानव को ही करना है कि हम कैसा जीवन जीना चाहते हैं।

क्या हम शीतल सृष्टि, सुखद जीवन और स्वस्थ समाज की स्थापना के लिए तैयार हैं?

प्रस्तुत पोस्ट केवल स्वरचित कविताओं का संकलन नहीं बल्कि हमारी गलतियों को उजागर करने तथा उनमें सुधार करने का उचित माध्यम है।

कविता  का संग्रह किसी व्यक्ति विशेष की खामियों को गिनाने के लिए साझा नहीं किया गया। बल्कि सम्पूर्ण देश को महामारी के प्रकोप से मुक्त कराने के लिए

अहं, स्वार्थ, लालच को त्याग कर नैतिकता और मानवता की राह पर चलने के लिए एक कदम बढ़ाने का आग्रह कर रहा है।

कविता के माध्यम से यदि मैं अपनी बात सभी तक पहुँचाने में सफल रही हूँ, तो यह मेरा सौभाग्य है। आप सभी घर में रहें, सुरक्षित रहें और स्वस्थ रहें नमस्कार

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