Jai Shankar Prasad Ka Jivan Parichay
Jai Shankar Prasad Ka Jivan Parichay हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण विषय है। जयशंकर प्रसाद हिन्दी के प्रसिद्ध नाटककार, उपन्यासकार तथा निबंधकार थे।
प्रसाद जी हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। वे एक विलक्षण लेखक थे, जिन्होंने कविता, नाटक, कहानी व उपन्यास की अमूल्य निधि प्रदान करके हिन्दी साहित्य को गौरवान्वित किया।
उत्कृष्ट कवि के रूप में वे सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत तथा महादेवी वर्मा के साथ छायावाद के प्रमुख स्तम्भ में सुशोभित होते हैं।
हिन्दी कविता में छायावाद युग द्विवेदी युग के उपरान्त आया। द्विवेदी युग की कविता नीरस, उपदेशात्मक और इतिवृत्तात्मक थी।
छायावाद में इसके विरूद्ध विद्रोह करते हुए भावान्मेश युक्त कविता लिखी गई। छायावादी काव्य प्राचीन संस्कृति साहित्य, मध्यकालीन हिन्दी साहित्य से भी प्रभावित हुई।
छायावादी युग के प्रतिनिधि कवि – जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पंत, महादेवी वर्मा हैं इन्हें छायावाद के चार स्तम्भ भी कहा गया।
छायावाद की कालावधि सन् 1917 से 1936 तक मानी गई है। रामचन्द्र शुक्ल जी ने छायावाद का प्रारम्भ 1918 ईस्वी से माना है,
क्योकि छायावाद के प्रमुख कवियों पंत, प्रसाद, निराला ने अपनी रचनाए इसी वर्ष के आस – पास लिखनी प्रारम्भ की थी।
प्रस्तुत लेख के माध्यम से हम छायावाद के प्रसिद्ध, उत्कृष्ट तथा प्रतिभासंपन्न लेखक जयशंकर प्रसाद के जीवन परिचय का ज्ञान प्राप्त करेंगे।
जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय
हिन्दी साहित्य में छायावाद के उद्भावक और इस शताब्दी के नियामक महाकवियों में अग्रगण्य श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के गोवर्धन सराय मुहल्ले में सुंघनी साहू के नाम से प्रतिष्ठित और वैभवशाली परिवार में माघ शुक्ल दशमी संवत 1946 वि. (1889 ई.) को हुआ था।
पितामह श्री शिवरतन साहू और पिता श्री देवी प्रसाद जी के समय घर पर कवियों, पंडितों, वैद्यों, यंत्रिकों, ज्योतिषियों, पहलवानों आदि का सदैव मेला सा लगा रहता था।
अनेक कवियों तथा कलाकारों के लिए यहाँ जीविका भी उपलब्ध होती थी। सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से सुंघनी साहू परिवार का नाम काशिराज नरेश के पश्चात लिया जाता था।
प्रसाद जी के पितामह और पिता जी से लोग ‘जय जय शंकर’ या ‘हर हर महादेव’ कहकर अभिवादन करते थे। जयशंकर प्रसाद जी स्वयं अपने उदार चरित्र के कारण आजीवन इस प्रतिष्ठा के अधिकारी बने रहे।
ऐसे सम्पन्न और यशस्वी परिवार में जन्म लेने के कारण उन्हें उदारता, गरिमा, गंभीरता, शालीनता, काव्य कला प्रियता, मानव प्रकृति की परख आदि गुण और विशेषताएं आनुवंशिक परंपरा तथा पारिवारिक परिवेश से सहज ही प्राप्त हो गई जो उनके काव्य में विध्यमान है।

पारिवारिक जीवन
सुँघनी साहू परिवार प्रसाद जन्म के बहुत समय पहले से शिव उपासक था। फलत: शैवागमन- दर्शन की ओर आकृष्ट होने के मूलप्रेरणा श्रोत उनकी पारिवारिक तथा व्यक्तिगत जीवन की इसी धार्मिक निष्ठा में विद्यमान है।
अपने शैशवकाल में प्रसाद जी को अत्यधिक स्नेह मिला। किन्तु बारह और पंद्रह वर्ष की आयु में क्रमश: उन्हें पिता और ममतामयी माँ के निधन की असह पीड़ा भी सहन करनी पड़ी।
उन्हें उत्तराधिकार रूप में उदात्त कुल के वैभव की मर्यादा, लाखों का ऋण, तंबाकू का गिरता हुआ व्यापार, बटवारे को लेकर गृहकलह तथा मुकदमा बाजी मिली।
इस समय इनके अग्रज श्री शंभू रत्न पितातुल्य थे, किन्तु दुर्भाग्य से प्रसाद जी की सत्रह वर्ष की अवस्था में उनका देहावसान हो गया और अब गृहस्थी का सम्पूर्ण भार प्रसाद जी के कंधों पर आ गया।
युवावस्था के आरभ की स्थिति में उन्हें आगे बढ़ना पड़ा जब उनके पग पग पर झंझाएं, झकोरे और नीरव मालाएं घुमड़ रही थी। अपनी सूझ बूझ, व्यवहार विद्वता एवं कर्मठता से उन्होंने अपना व्यापार संभाला,
और लगातार 24 – 25 वर्षों के अथक श्रम से अपना सारा ऋण भी उतार दिया उनके प्रवृतिमुखी जीवन दर्शन के मूल में उनकी यही कर्मठता और लगनशीलता सक्रिय रही है।
वैवाहिक जीवन
जयशंकर प्रसाद जी ने दाम्पत्य प्रणय को भी अपने जीवन में दो बार खंडित होते हुए देखा है। दूसरी पत्नी को प्रसव वेदना के समय मृत्यु हो जाने पर तो उन्हें घनीभूत पीड़ा हुई और वे गृहस्थ जीवन के सुख से उदासीन हो गए,
किन्तु अंतत: वे अपनी माँ तुल्य भाभी के अनुरोध को नही टाल सकें और उन्होंने स्वयं अपना तीसरा विवाह भी किया। उनकी तृतीय पत्नी श्रीमती कमला देवी और वृद्धा भाभी जीवित रहे।
प्रसाद जी के प्रौढ़काल का परिवार पत्नी, भाभी और पुत्र रत्न शंकर तक सीमित रहा। उसमें शांति और सुख बना रहा। किन्तु प्रणय के बार बार विखंडन और प्रारम्भिक जीवन की गृह कलह से उनके जीवन में एक अंतरद्वद् विद्यमान रहा।
जिसकी छाया उनके काव्य पर भी पादन स्वाभाविक था। उनके साहित्य के अंतर्गत पारिवारिक कलह के जो चित्र आए हैं वे उनकी गृह कलह की प्रतिच्छायाएं हैं।
अपने सम्पूर्ण जीवन करुणा प्रवाह देखने के करण उन्हें सुख दुख, मानापमान, हानी लाभ, सफलता असफलता आदि सभी सं विषम परिस्थितियों में आत्म संतोष हेतु भाग्यवादी भी बनना पड़ा।
यही वस्तु अपनी परिपूर्ण विकसावस्था में उनके जीवन और काव्य की समरसता के मूल में भी निहित रही।
शिक्षा
प्रसाद जी की नियमित शिक्षा क्वींस कॉलेज में केवल 8वी तक हो सकी थी। उनके अग्रज शंभू रत्न जी ने घर पर उनके अध्ययन की समुचित व्यवस्था कर दी थी।
कई शिक्षक आकर उन्हें संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, हिन्दी पढ़ाया करते थे। इनके गुरुओं में विशेष उल्लेखनीय श्री मोहनीलाल ‘रसमयसिद्ध’ जी हैं।
वे एक अच्छे कवि भी थे। प्रसाद जी के आरंभिक कवि व्यक्तित्व पर इनका गहरा प्रभाव पड़ा। वेद उपनिषद आदि का अध्ययन प्रसाद जी ने पंडित दीनबंधु ब्रम्हचारी जी के द्वारा किया।
स्वाध्याय की ओर उनकी रुचि आरभकाल से ही रही थी। उनकी प्रारम्भिक आख्यानक रचनाओं ‘चित्राधार’ तथा ‘कानन कुसुम’ में इस तथ्य का अच्छा प्रमाण मिलता है।
स्वाध्याय के द्वारा ही प्रसाद जी ने भारतीय तथा योरोंपीय दर्शन साहित्यशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र, ज्योतिषी, प्राचीन भारतीय इतिहास, वेध्यक और तंत्र साहित्य में गहन ज्ञान अर्जित किया था।
उनकी यह बहुमुखी गंभीर अध्ययन शोध प्रवृति उनके साहित्य में भारतीय सांस्कृतिक, दार्शनिक, पौराणिक और ऐतिहासिक भूमिका के रूप में विध्यमान है।
भाषाओं का ज्ञान
जयशंकर प्रसाद जी दैनिक जीवन के वार्तालाप में समय समय पर संस्कृत, उर्दू, फारसी, हिन्दी आदि के समुचित उदाहरण देते रहते थे।
संस्कृत में कालिदास, हिन्दी में सूर, तुलसी और भारतेन्दु, फारसी में उम्र खय्याम, जलालुद्दीन रूमी और हाफिज तथा उर्दू में सौदा और गालिब की रचनाएं उन्हें विशेष पसंद थी।
तुलसी और भारतेन्दु के प्रति तो प्रसाद जी ने अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने वाली प्रशस्ति परक रचनाएं भी लिखी हैं।
जीवन की यात्राएं
प्रसाद जी ने 5 वर्ष की आयु में अपनी माँ के साथ कुछ संस्कारों के लिए जौनपुर और विंध्याचल की सुरम्य घाटियों की पहली यात्रा की थी।
यहाँ की रमणीक प्रकृति ने कवि के शैशव और सुकुमार हृदय पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। 9 वर्ष की अवस्था में प्रसाद जी अपनी माँ के साथ
चित्रकूट, नैमिषरण्य, मथुरा, ओंकारेश्वर, धार क्षेत्र, उज्जैन, पुष्कर, ब्रज, अयोध्या आदि सांस्कृतिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व के स्थलों की लंबी यात्राएं की।
माँ की श्रद्धा भक्ति एवं धार्मिक स्थलों के सनातनी जीवन ने भी कवि व्यक्तित्व के संवर्धन में योग दिया है।
जयशंकर प्रसाद जी अपने निधन के 5 वर्ष पूर्व गया, महोदधि, भुवनेश्वर, पूरी आदि की एक और लम्बी यात्रा पर सपरिवार गए थे।
पूरी के समुद्री तट पर उन्होंने ‘ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे धीरे’ ‘है सागर संगम तरुण नील’ शीर्षक गीतों की रचना की।
इन यात्राओं के पश्चात प्रसाद जी ने अपने पुत्र रत्नशंकर के अत्यधिक अनुरोध पर प्रदर्शनी देखने के लिए लखनऊ की यात्रा भी की। यह प्रसाद जी के जीवन काल की अंतिम यात्रा थी।
साहित्यिक जीवन
जयशंकर प्रसाद जी ने 9 वर्ष की आयु से साहित्यिक साधना प्रारंभ की और जीवन के अंतिम क्षणों तक लगातार 39 वर्षों तक गहन तपस्या करते रहे।
अपने साहित्यिक जीवन में आपने काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, चंपू, जीवनी और सैद्धांतिक तथा ऐतिहासिक शोधमूलक निबंध लिखे।
रचनाएं
काव्य – चित्रधार, कानन कुसुम, तरुणालय, महाराणा का महत्व, प्रेमपथिक, झरना, आँसू, लहर, कामायनी और प्रसाद संगीत।
नाटक – सज्जन, प्रयश्चित, कल्याणी-परिणय, राज्यश्री, विशाख, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना, स्कन्दगुप्त, चंद्रगुप्त, एक घूँट, ध्रुवस्वामिनी और अग्निमित्र।
उपन्यास – कंकाल, तितली और इरावती।
कहानी – छाया, प्रतिध्वनि, प्रकाशद्वीप, आँधी और इन्द्रजाल।
निबंध – काव्य और कला तथा अन्य निबंध।
चंपू – उर्वशी और वभुवाहन।
जीवनी – चंद्रगुप्त मौर्य।
निधन
लखनऊ प्रदर्शनी देख कर लौटने के कुछ समय बाद 22 जनवरी 1936 को वो बीमार हो गए। जयशंकर प्रसाद जी की स्थिति दिन प्रति दिन बिगड़ती गई।
अपने मित्रों और डाक्टरों के परामर्श के बाद भी उन्होंने जलवायु परिवर्तन हेतु काशी नही छोड़ा और अंत में कार्तिक शुक्ल एकादशी संवत 1994 वि तदनुसार 15 नवंबर 1937 को इस महाकवि का महाप्रयाण हो गया।
उपसंहार
उपरोक्त वर्णित लेख के माध्यम से जयशंकर प्रसाद जी के जीवन की सम्पूर्ण झाँकी स्पष्ट हो जाती है।
प्रस्तुत विषय 9, 10, 11, और 12 क्लास के विद्यार्थियों के लिए तथा प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
प्रस्तुत लेख पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य प्रदान करें। प्रतियोगी परीक्षा संबंधी हिन्दी ग्रामर के पोस्ट पढ़ने के लिए तथा प्रतियोगी परीक्षाओं की जानकारी प्राप्त करने के लिए
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सभी स्वस्थ रहें, मस्त रहें और सुरक्षित रहें। नमस्कार