JaiShankar Prasad Ki Rachnaye
JaiShankar Prasad Ki Rachnaye उनके उत्कृष्ट साहित्यिक जीवन का परिचय प्रदान करती हैं । प्रस्तुत पोस्ट में जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित रचनाओं का विस्तृत परिचय प्राप्त करेंगें।
जयशंकर प्रसाद की रचनाएं उत्कृष्ट, मनोरंजक, आशावादी, आत्मविश्वास, कर्मवाद की प्रखरता से युक्त है। इनकी काव्य कृतियों में भाषा, छंद, भाव आदि की दृष्टि से अनेकरूपता दिखाई देती है।
कवि होने के साथ साथ ये गंभीर चिंतक भी थे। कामायनी में प्रसाद जी ने यंत्र और तर्क पर आधारित समाज के चित्रण के साथ साथ शैव दर्शन की अभिव्यक्ति भी की है।
इसप्रकार आधुनिक होते हुए भी प्रसाद सहज ही प्राचीन प्रतिभाशाली परंपरा से सम्बद्ध नजर आते हैं। प्रसाद जी की रचनाओं में छायावाद की विशेषताएं परिलक्षित होती हैं।
जैसे – प्रकृति का आलंबन व उद्दीपन रूप में चित्रण, प्रतीकों का प्रयोग, मानवीकरण, प्रकृति का दार्शनिक तथा रहस्यात्मक रूप, दार्शनिक विचार अलंकरण आदि।
अब आइए जयशंकर प्रसाद जी की रचनाओं का विस्तार से वर्णन करने से पहले एक दृष्टि छायावादी काव्य पर डालें –
छायावादी काव्य जगत
काव्यरूपों की दृष्टि से भी छायावादी काव्य अत्यंत समृद्ध है। एक ओर उसमें गीतों और मुक्त छंद की कविताओं की अधिकता है, तो दूसरी ओर ‘आँसू’ एवं ‘तुलसीदास’ जैसे खंडकाव्य भी मिलते हैं
और ‘कामायनी’ महाकाव्य में तो छायावादी संवेदना अपनी समग्रता में मूर्तिमान दिखाई देते हैं। इनके अतिरिक्त ‘प्रलय की छाया’ में (प्रसाद), ‘राम की शक्ति पूजा’ (निराला), और ‘परिवर्तन’ (पंत) जैसी लम्बी कविताएं भी मिलती हैं,
जिन्हें काव्य रूप की दृष्टि से किसी परंपरित साँचे में नही रखा जा सकता। अभिव्यंजना की साकेतिकता और वक्रता भी छायावादी कवियों की उल्लेखनीय उपलब्धि है।
जयशंकर प्रसाद की रचनाएं
प्रसाद जी जीवन पर्यंत रचनाएं लिखते रहे। इनका लेखन कौशल साहित्य की सभी विधाओं में प्रतिफलित हुआ।
कविता, नाटक, उपन्यास और निबंध सभी में उनकी गति समान रही, किन्तु प्रत्तेक विधा में कवि चरित्र अवश्य मुखरित होता रहा।
प्रसाद जी ने कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं की।
प्रसाद जी ने अपनी 9 वर्ष की आयु से साहित्य साधना प्रारंभ की और जीवन के अंतिम क्षणों तक अर्थात लगातार 39 वर्षों तक गहन तप करते रहे।
जयशंकर प्रसाद की रचनाएं इस प्रकार हैं –
काव्य – चित्रधार, कानन कुसुम, तरुणालय, महाराणा का महत्व, प्रेमपथिक, झरना, आँसू, लहर, कामायनी और प्रसाद संगीत।
नाटक – सज्जन, प्रयश्चित, कल्याणी-परिणय, राज्यश्री, विशाख, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना, स्कन्दगुप्त, चंद्रगुप्त, एक घूँट, ध्रुवस्वामिनी और अग्निमित्र।
उपन्यास – कंकाल, तितली और इरावती।
कहानी – छाया, प्रतिध्वनि, प्रकाशद्वीप, आँधी और इन्द्रजाल।
निबंध – काव्य और कला तथा अन्य निबंध।
चंपू – उर्वशी और वभुवाहन।
जीवनी – चंद्रगुप्त मौर्य।
अब हम प्रसाद जी की रचनाओं का विस्तार से अध्ययन करेंगे –
काव्य रचनाएं
जयशंकर प्रसाद जी की काव्य रचनाएं हैं – ‘उर्वशी’ (1909), ‘वनमिलन’ (1909), ‘प्रेमराज्य’ (1909), ‘अयोध्या का उद्धार’(1910), ‘शोकोंच्छवास’ (1910), ‘वभरूवहाँ’ (1911), ‘कानन कुसुम’ (1913),
‘प्रेम पथिक’(1913), ‘करुणालय’ (1913), ‘महाराणा का महत्व’ (1914), ‘झरना’ (1918), ‘आँसू’ (1925), ‘लहर’(1933), और ‘कामायनी’ (1935)।
‘प्रेमपथिक’ की रचना पहले ब्रजभाषा में की गई थी, किन्तु बाद में उसे खड़ी बोली में रूपांतरित कर दिया गया।
‘कानन कुसुम’ और ‘झरना’ के परवर्ती संस्करणों में कवि ने कुछ नई कविताओं का समावेश किया तथा आँसू में चौसठ छंद और जोड़ दिए।
प्रतीत होता है की झरना से पूर्व की सभी रचनाएं द्विवेदी युग के अंतर्गत लिखी गई थी। प्रसाद जी की आरंभिक शैली बहुत कुछ आयोध्यासिंह उपाध्याय की संस्कृतगर्भित शैली से मिलती जुलती है,
जो स्थूल और बहीमुखी हैं। छायावादी प्रवृतियों के दर्शन सबसे पहलके झरना में होती हैं। इनकी अनेक कविताओं में कवि ने अंतर्मुखी कल्पना द्वारा सूक्ष्म भावनाओं को व्यक्त करने का प्रयास किया है।
वाह्य सौन्दर्य का चित्रण करते हुए भी उन्होंने उसके सूक्ष्म और मानसिक पक्ष को व्यक्त करने की ओर ध्यान दिया है।
चित्राधार
यह प्रसाद जी की प्रारम्भिक कविताओं का संकलन है। इसमें जिन कृतियों का समावेश था, उनके नाम इस प्रकार हैं – ‘कानन कुसुम’, ‘प्रेमपथिक’, ‘महाराणा का महत्व’, ‘सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य’, ‘छाया’, ‘उर्वशी’,
‘राज्यश्री’, ‘करुणालय’, ‘प्रायश्चित’ और ‘’कल्याणीपरिणय। इस संग्रह में ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली एवं गद्य पद्यमयी सभी प्रकार की रचनाएं थी।
काव्य की दृष्टि से चित्राधार की समस्त रचनाएं परंपरागत प्रभावों से युक्त इतिवृत्तात्मक तथा वर्णनात्मक है।
इनका महत्व प्रससद – काव्य – विकास के सूत्रों की सन्निहित अथवा उनके प्रौढ़ काव्य चित्रों की मूलाधार – भक्ति – रूप में ही निहित है और इसी दृष्टि से इस कृति का नामकरण भी सार्थक है।

काननकुसुम
कानन कुसुम के वर्तमान संस्करण में प्रसाद जी की कुल 49 कविताएं हैं। इस कृति का नामकरण इसमें अनेक प्रकार के रंगीन सादे, सुगंध और निर्गंध कानन कुसुमों के असंगत भाव से संग्रह के करण किया गया है।
कानन कुसुम सहज, स्वाभाविक एवं प्राकृतिक रूप रचना का प्रतीक है। रीतिकालीन ब्रजकाव्य के संस्कार केवल कतिपय शब्दों में सीमित हैं,
द्विवेदीयुगीन काव्यादर्श और शैलियाँ अपेक्षाकृत अधिक हैं, किन्तु कवि इनसे धीरे धीरे स्थूल से सूक्ष्म और मूर्त से अमूर्त की ओर प्रत्यागमन कर रहा है।
यह विकास प्रसाद जी काव्य व्यक्तित्व की एक महती विशेषता है, जो उन्हें धीरे धीरे आँसू और कामायनी की शिल्प और वस्तु संबंधी ऊंचाइयों तक ले गई है।
करुणालय
प्रससद जी के अनुसार – “यह रचना दृष्टकाव्य गीतनाट्य के ढंग पर लिखा गया है।“ पर कुछ लोग इसे गीतिरूपक, भावनाट्य, पद्यकथा तथा पद्यबंध कहानी की संज्ञा भी देते हैं।
सुविधा के लिए हम इसे गीतनाट्योन्मुख कह सकते हैं।
महाराणा का महत्व
प्रेमराज्य और वीरबालक आख्यान रचनाओं की अग्रिम परंपरा में शामिल यह प्रसाद जी का ऐतिहासिक खंड काव्य है।
महाराणा प्रताप, रहीमखानखाना, अकबर आदि से संबंधित ऐतिहासिक कथानक में प्रसाद जी ने अपनी कल्पना शक्ति का भी अच्छा प्रदर्शन किया है।
महाराणा प्रताप की वीरता व देशप्रेम को महत्व देते हुए कवि ने इस कृति को राष्ट्रीय भावनाओं से भी ओत प्रोत कर दिया है।
प्रेमपथिक
यह महाराणा प्रताप का महत्व के बाद दूसरा महत्वपूर्ण खंडकाव्य है। प्रेमाख्यान को लेकर यह रचना पिछली सम्पूर्ण कृतियों की तुलना में अधिक स्वच्छंदतावादी प्रवृतियों से युक्त है।
छायावादी काव्य की मानवीय, स्वच्छंदतामूलक और सर्वात्मवादी पृष्ठभूमि भी सबसे पहले हमें उनकी इसी कृति में सशक्त रूप में दिखाई देती है।
प्रेमपथिक ब्रजभाषा में लिखी गई कृति है तथा वर्तमान में इसकी 136 पंक्तियाँ ही उपलब्ध हैं, किन्तु वे अपने आप में पूर्णता लिए हुए हैं।
कथानक इस प्रकार है कि एक पथिक सुंदर, सुखधाम और आरामपूर्ण आवास को छोड़कर अभिराम को गमन करता है।
झरना
झरना छायावाद का प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ है। यह रचना उर्वराशील, प्रवाहमयी, गहन आत्मानुभूति और प्रतीकात्मकता युक्त श्रेष्ठ कृति रही है।
आँसू
झरना में जो प्रेमानुभूतियाँ ‘लालसा हरित’ विटप छायाओं में बिना किसी शोर के बह गई, किन्तु आँसू में प्रेम की घनीभूत पीड़ाएं उनके मस्तक पर स्मृति सी मडराई है
और सघनता के साथ आँखों की राह से बरसी हैं। झरना में जो आत्मसंकोच था, वो यहाँ पीड़ा के प्रवेश प्रदर्शित हो गया।
किसी की स्मृति को कवि ने अपने जीवन का उद्देश्य बनाया है, उसके लिए आंसुओं का कितना अर्ध्य दिया, इस कृति के अध्ययन से सहज ही विदित हो जाता है।
आँसू की हर बूँद में कवि चेतन का सर्वस्व निचोड़ है। आँसू का आरंभ कवि ने विरह वेदना की अभिव्यक्ति से किया है –
इस करुणा कलित हृदय में
अब विकल रागिनी बजती
क्यों हाहाकार स्वरों में
वेदना असीम गरजती?
इसके अंत में कवि ने प्रस्तुत छंद के माध्यम से कवि ने व्यक्तिगत वेदना को भूल कर उसे विश्व कल्याण की भावना के साथ मिल दिया है –
सबका निचोड़ लेकर तुम
सुख से सूखे जीवन में
बरसों प्रभात हिमकन सा
आँसू इस विश्व सदन में।
लहर
झरना की भावनाओं का पर्वतीय उद्वेग, कल – कल छल – छल और आँसू की घनीभूत पीड़ा लहर के प्रगीतों में पहुंचकर, जीवन के तापों से निखरकर पवित्र और उज्ज्वल बन प्रवाहित होने लगती है।
एक से अनेक और शांत से अनंत की ओर भावनाओं का यह प्रस्फुटन कवि व्यक्तित्व का ही विकास है जो लहर के प्रगीतों में मूर्तमंत्र रूप में प्रस्तुत हुआ।
लहर में प्रसाद जी द्वारा रचित 29 लघु गीत तथा 4 आख्यानक वृहत्तर प्रगीतात्मक रचनाएं संगृहीत हैं।
कामायनी
कामायनी की वस्तु 15 सर्गों में विभक्त हैं। सर्गों का नामकरण व्यक्ति, चरित्र, स्थान, कार्य, घटना आदि के आधार पर न होकर मानवीय भावों पर आधारित हैं।
इन भावों में एक मनोवैज्ञानिक विकास क्रम भी सन्निहित है और केवल इनके आधार पर भी चिंता से लेकर आनंद तथा मानव से मानवता की दिशा में बढ़ते हुए चरणचिन्हों का अध्ययन किया जा सकता है।
कामायनी महाकवि जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण दार्शनिक चिंतन का मूल आधार है। इनकी प्रारम्भिक रचनाओं आँसू, झरना, लहर, प्रेमपथिक में भी एक सुनिश्चित वैचारिक आधार मिलता है।
लेकिन इनकी चरम परिणित कामायनी में मिलती है। कामायनी का प्रारंभ हिमगिरि के ऊंचे शिखर पर एक शिला पर बैठे हुए भीगे नयनों से प्रलय प्रवाह देखने वाले एक पुरुष की अस्तित्व चिंता से होता है।
पुरुष वैवस्वत मनु हैं, जिन्हें प्रसाद जी ने भारतीय इतिहास का आदि पुरुष माना है। कामायनी में नारी और करुणा का मार्मिक सामंजस्य दिखने को मिलता है –
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रचत नभ पग तल में।
पीयूष श्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।।
तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में, कुछ सत्ता है नारी की।
समरसता है संबंध बनी, अधिकार और अधिकारी की।।
नाटक
जयशंकर प्रसाद जी ने लगभग 13 नाटकों की रचना की। जिनमे कुछ ऐतिहासिक कुछ पौराणिक तथा कुछ भावात्मक भी हैं।
इनके प्रमुख नाटक इस प्रकार हैं – सज्जन, प्रयश्चित, कल्याणी-परिणय, राज्यश्री, विशाख, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना, स्कन्दगुप्त, चंद्रगुप्त, एक घूँट, ध्रुवस्वामिनी और अग्निमित्र।
कामना और एक घूंट के अतिरिक्त अन्य नाटक मूलत: इतिहास पर आधारित हैं। अत: प्रसाद जी एक सर्वश्रेष्ट नाटककार के रूप में हिन्दी साहित्य में उजागर हुए।
कहानी
सन् 1912 ई में जयशंकर प्रसाद जी की पहली कहानी इंदु प्रकाशित हुई। प्रससद जी ने लगभग 72 कहानियाँ लिखी। इनके कहानी संग्रह हैं – छाया, प्रतिध्वनि, प्रकाशद्वीप, आँधी और इन्द्रजाल।
प्रसाद जी की कहानियों में भावना की प्रधानता तथा यथार्थता की झलक मिलती है। प्रसाद जी ने ऐतिहासिक, प्रागैतिहासिक तथा पौराणिक कहानियों की रचना की है।
उपन्यास
जयशंकर प्रसाद जी ने तीन उपन्यास लिखे। कंकाल, तितली और इरावती। जिनमें से कंकाल में नागरिक सभ्यता का अंतर यथार्थ उद्घाटित किया गया है।
तितली में ग्राम्य जीवन के सुधार हेतु संकेत वर्णित हैं। इरावती ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया प्रसाद जी का प्रसिद्ध उपन्यास है।
प्रसाद जी के उपन्यास एक ओर भावुकता जाग्रत करते हैं तो दूसरी ओर मार्मिकता।
निबंध
प्रसाद जी के निबंध विचारों की गहनता, भावों की प्रबलता, चिंतन की गहराई तथा मनन की असीमता व गंभीरता से ओत प्रोत हैं।
प्रारंभ में इन्होंने इंदु पत्रिका में निबंध का प्रकाशन कराया। तत्पश्चात शोध परक ऐतिहासिक निबंधों की रचना की। इनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं –
सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य, प्राचीन आर्यवत और उसका प्रथम सम्राट तथा काव्य और कला।
उपसंहार
उपरोक्त वर्णित लेख के माध्यम से जयशंकर प्रसाद जी की महत्वपूर्ण रचनाओं का विस्तार से अध्ययन किया जा सकता है।
प्रस्तुत विषय 9, 10, 11, और 12 क्लास के विद्यार्थियों के लिए तथा प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
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