Mahadevi ka Kavya Aur Boudh Darshan
Mahadevi ka Kavya Aur Boudh Darshan छायावाद की अनुपम उपलब्धि रहा है। महादेवी जी का काव्य रचनाओं में मानवीय करूणा का सागर असीम और अगाध हैं।
वैयक्तिक धरातल पर लोक जीवन के मूल्यों का सहज स्पर्श है। इनके काव्य में मानव मध्य विषयक जो शक्ति है, वह लोक जीवन की इसी चेतना की पहचान की शक्ति है।
कवयित्री महादेवी के काव्य में करूणा और लोकमंगल की कामना कवि की गहरी संवेदना, अध्ययन और चिन्तन का परिणाम था।
समाज के प्रति गहरी सहानुभूति और युग – दर्शन की उदात्त झांकी इनके काव्य में परिलक्षित होती है, जो कि बौद्ध दर्शन के प्रभाव से परिपूर्ण रही है।
बौद्ध धर्म का मुख्य उद्देश्य रहा है- ‘दुख से मुक्ति’ अर्थात दुख में रहते हुए भी दुख की अनुभूति न होना ही दुख से मुक्ति होती है। यही भाव महादेवी के काव्य में दिखाई देते हैं उन्होंने दुख में भी सुख की अनुभूति करते हुए कहा-
कौन तुम मेरे हृदय में?
कौन मेरी कसक में नित मधुरता भरता अलक्षित?
आइए मधुरता भरे संवेदनशील हिन्दी साहित्य के छायावाद की अमर कवयित्री महादेवी वर्मा जी के काव्य का अध्ययन करें।
आज प्रस्तुत पोस्ट के माध्यम से हम महादेवी वर्मा के काव्य में बौद्ध दर्शन के प्रभाव का दर्शन करेंगे। तो चलिए सबसे पहले दर्शन का अर्थ जाने तत्पश्चात महादेवी की काव्य रचनाओं में बौद्ध दर्शन का आनंद प्राप्त करें।
दर्शन का अर्थ
दर्शन शब्द पाणिनी व्याकरण के अनुसार ’द्वशिर प्रेक्षणे‘ धातु से ल्युट् प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है अतएव दर्शन शब्द का अर्थ दृष्टि या देखनां जिन तत्वों के द्वारा देखा जाए या किसी भी वस्तु जिसमें देखा जाए।
इसीलिए पाणिनी ने ‘धात्वर्थ’ में प्रेक्षण शब्द का प्रयोग किया। ‘प्रकृष्ट ईक्षण’ जिसमें अन्तः चक्षुओं द्वारा देखना या मनन करके सोमपत्तिक निष्कर्ष निकालना हीं दर्शन का अभिधेय है।
इस प्रकार के प्रकृष्ट ईक्षण के साधन और फल दोनों का नाम ही दर्शन है। सामान्य शब्दों में किसी विषय से सम्बन्धित तत्वों पर विचार करके,
तत्वों का मूल्यांकन करके अपने अनुसार उस विषय के मूल्यांकन सम्बन्धी निष्कर्ष निकालना ही दर्शन है।
मनु के अनुसार सम्यक् दर्शन का तात्पर्य सच्ची व शुद्ध आस्था है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक समान शुद्ध और सच्ची भावना रखना ही मानव के लिए
परम ज्ञान को प्राप्त करना है और जब सम्यक् दर्शन रूपी नेत्र मिल जाते हैं, तब सारे भेदभाव मिट जाते हैं।
दर्शन शास्त्र के अन्तर्गत उत्तरमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, षट दर्शन, जैन दर्शन, न्याय दर्शन, पूर्वमीमांसा, बौद्ध दर्शन, मीमांसा दर्शन, योगदर्शन, विशिष्टद्वैत दर्शन, वैशेषिक दर्शन, सांख्य दर्शन,
भारतीय दर्शन, अध्यात्मवाद, अज्ञेयवाद, शैव दर्शन, द्वैताद्वैतवाद, सर्वात्मवाद, अरबी दर्शन, आत्मवाद, आदर्शवाद, आनंदवाद, आदि विषयों की विस्तार से व्याख्या की गई है।
बौद्ध दर्शन का अर्थ
बौद्ध दर्शन का अर्थ उस दर्शन से है जो भगवान बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों द्वारा विकसित किया गया और बाद में पूरे एशिया में उसका प्रसार हुआ।
कर्म, ज्ञान एवं प्रज्ञा इसके साधन रहे हैं। ’दुख से मुक्ति‘ बौद्ध धर्म का मुख्य उद्देश्य रहा है अर्थात दुख में रहते हुए भी दुख की अनुभूति न होना ही दुख से मुक्ति होती है।
बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं। ये सुत्त पिटक, विनय पिटक, और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं।
बौद्ध दर्शन अपने प्रारम्भिक काल में जैन दर्शन की ही भांति आचारशास्त्र के रूप में ही था। बाद में बुद्ध के उपदेशो के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने इसे आध्यात्मिक रूप प्रदान कर एक सशक्त दार्शनिक शास्त्र बनाया।
बुद्ध द्वारा सर्वप्रथम सारनाथ में दिए गए उपदेशो में से चार आर्यसत्य बताए गए जो इस प्रकार हैं- ’दुख समुदाय निरोध मार्गश्रिचत्वार आर्य बुद्धस्याभिमतानि तत्वानि।
‘अर्थात् – दुख का तात्पर्य संसार दुखमय है। दुख समुदाय दर्शन अर्थात् दुख उत्पन्न होने का कारण (तृष्णा) है। दुख निरोध- अर्थात दुख का निवारण सम्भव है। दुख निरोधमार्ग से तात्पर्य दुख निवारक मार्ग (अष्टांगक मार्ग)।
बौद्ध दर्शन के मतानुसार इन चारों तत्वों में से दुखसमुदाय के अन्तर्गत द्वादशनिदान (जरामरण, जाति,भय, उपादान, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, षडायतन, नामरूप, विज्ञान,
संस्कार तथा अविद्या) तथा दुखनिरोध के उपायों मे अष्टांगमार्ग (सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी , सम्यक कर्म, सम्यक आजीव, सम्यक प्रयत्न, सम्यक स्मृति, तथा सम्यक समाधि) का विशेष महत्व है।
इसके अतिरिक्त पंचशील (अहिंसा, अस्तेय, सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह) इसके पश्चात द्वादश आयतन (पंच ज्ञानेन्द्रिया, पंच कर्मेन्द्रिया, मन और बुद्धि),
जिनसे सम्यक् कर्म करना चाहिए भी आचार की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। बुद्ध के अनुसार परिवर्तन ही सत्य हैं। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है।
बाह्य और आन्तरिक जगत में कुछ भी सम्पूर्ण सत्य नहीं है। वस्तु का निरन्तर परिवर्तनशील होना ही यथार्थ सत्य है। कोई भी पदार्थ एक क्षण से अधिक स्थायी नहीं रहता है।
कोई भी मनुष्य दो क्षणों में एक समान नहीं रह सकता इसी प्रकार आत्मा भी क्षणिक है और मानव जीवन भी क्षणिक है। यह सिद्धान्त क्षणिकवाद कहलाया। आत्मा मनोभावों और विज्ञान की धारा है।
इस प्रकार बौद्धमत में उपनिषदों के आत्मवाद का खंडन करके ’’अनात्मवाद‘‘ की स्थापना की गई है। अर्थात वे आत्मा पर विश्वास नहीं करते फिर भी दुख और करूणा से परिपूर्ण है।
कर्म और पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं। दुख व करूणा से द्रवित होकर बुद्ध ने वैराग्य लिया किन्तु दुख से परिपूर्ण हो निराश नहीं हुए बल्कि दुख की समाप्ति का उपाय खोजा ज्ञान की प्राप्ति हेतु प्रयत्न किए
अविद्या, तृष्णा, आदि में दुख का मूल है इस निष्कर्ष पर पहुचकर इनके निवारण हेुतु निर्वाण का मार्ग बताया। बुद्ध ईश्वर की सत्ता नही मानते क्योंकि दुनिया प्रतित्समुत्पाद के नियम पर चलती है।
प्रवीत्यसमुत्पाद अर्थात कारण कार्य की श्रृंखला इस श्रृंखला के कई चक्र हैं, जिन्हें बारह अंगो में बाटा गया। अतः इस ब्रम्हाण्ड को चलाने वाला कोई नहीं है न ही कोई उत्पत्तिकर्ता है न अंत करने वाला। त
ब न ही कोई प्रारम्भ और न ही अंत। इस प्रकार बौद्ध दर्शन के तीन मूल सिद्धान्त है अनीश्वरवाद, अनात्मवाद तथा क्षणिकवाद।
बौद्ध दर्शन के अनुसार दुख ही अर्थ सत्य है। जन्म में, दुख है, जरा में दुख है, व्याधि और मरण में भी दुख है, अप्रिय वस्तु के संयोग तथा प्रिय वस्तु के वियोग में भी दुख है।
महाभारत काल के अनुसार इस संसार में सुख की अपेक्षा दुख आधिक्य है। गीता में भी मानव जीवन को शाश्वत और दुखों का आलय तथा अनित्य सुख रहित कहा गया है।
साहित्य में यही दुखवाद ’वेदनानुभूति‘ की संज्ञा से अभिहित हुआ है। जीवन और जगत पर इसकी छाया प्रारम्भ से चली आ रही है। और आज भी किसी न किसी रूप में दृष्टिगोचर होती है।
अतः वेदनानुभूत की व्यापकता भारतीय जीवन – दर्शन का प्रमुख आधार है। छायावाद युग में सर्वत्र वेदनानुभूति की तीव्रता विद्यमान है। इस वेदना का मानव जीवन में उतना ही महत्व है जितना आनन्दानुभूति का।
मनुष्य अपने प्रत्येक कृत्यसुख प्राप्ति की इच्छा से करता है, किन्तु दुख सदैव जुड़ा रहता है। यही कारण है कि मानव को जीवन मे वेदना, दुख वह निराशा का सामना करना पड़ता है।
छायावादी, काव्यधारा की यह वेदनानुभूति कवियों की वैयक्तिकता और संवेदनशीलता का परिणाम है।

महादेवी का काव्य
बौद्ध दर्शन के महायान परम्परा से उत्पन्न दर्शन को स्वीकार करते हुए निर्वाण की अपेक्षा समाष्टि हित पर अधिक बल दिया।
महादेवी वर्मा की रचनाओं में बौद्ध धर्म के दुखवाद और करूणा के सिद्धान्त का प्रभाव स्पष्ट रूप् से देखा जा सकता है। महादेवी जी का काव्य रचनाओं में मानवीय करूणा का सागर असीम और अगाध हैं।
वैयक्तिक धरातल पर लोक जीवन के मूल्यों का सहज स्पर्श है। इनके काव्य में मानव मध्य विषयक जो शक्ति है, वह लोक जीवन की इसी चेतना की पहचान की शक्ति है।
कवयित्री महादेवी के काव्य में करूणा और लोकमंगल की कामना कवि की गहरी संवेदना, अध्ययन और चिन्तन का परिणाम था।
समाज के प्रति गहरी सहानुभूति और युग – दर्शन की उदात्त झांकी इनके काव्य में परिलक्षित होती है, जो कि बौद्ध दर्शन के प्रभाव से परिपूर्ण रही है।
असहाय वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति दिखा कर उनके दुखों की अनुभूति करके दुखों व कष्टों के निवारण हेतु तथा असहाय लोगों को समान अधिकार दिलाने हेतु इन्होने सराहनीय कार्य किए।
महादेवी के गीतों में अनुभूति और विचारों में एकात्मकता प्राप्त होती है। कवयित्री स्वानुभूति को अपने काव्य में प्रस्तुत करने में सफल रही है। महादेवी के काव्य का मूल स्वर ’वेदना‘ है।
काव्य की मूल प्रेरणा उनके हृदय का ’विषाद‘ और ’वेदना‘ है। कवयित्री को कविताएं मानवीय एवं आध्यत्मिक दोनों आधार भूमियों पर वेदना की धारा प्रवाहित करने की चेष्टा की गई है।
इनके वेदना के स्वर में जहा एक और संसार में विश्व कल्याण के प्रसार की क्षमता रही है तो दूसरी और असीम के चिर वियोग से उत्पन्न पीड़ा की गूँज।
वेदना ने कवयित्री को मधुमय पीड़ा दी थी। अतः वे प्रिय से मिलन ठुकराकर इनके चार वियोग में आत्मिक सुख प्राप्त करना चाहती थी।
महादेवी में वेदना का आधिक्य है पर वह लौकिक नहीं, अपौरूषेय है। उनके दुखवाद का दर्शन उदात्त है। उनकी काव्य वेदना आध्यात्मिक भी है।
उसमें ’आत्मा‘ का ’परमात्मा‘ के प्रति तड़प् और प्रणय निवेदन है। कवि की आत्मा अपने प्रियतम का स्मरण करती हुई प्रतीत होती है।
मीरा ने जिस प्रकार अपने ईश की उपासना सगुण रूप में की उसी प्रकार महादेवी ली ने उनकी अराधना निर्गुण रूप में की; यही कारण है कि महादेवी जी को आधुनिक मीरा संज्ञा प्रदान की गई।
बौद्ध दर्शन का प्रभाव
महादेवी के दुखवाद पर बौद्ध दर्शन के सर्वदुख के सिद्धान्त का गहरा व स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। बुद्ध की विश्व मंगल की कामना जो कि संसार के दुख, करूणा, वेदना, असहनीय दुर्दशा को देखकर
और आत्मिक अनुभूति के माध्यम से बुद्ध के मन में उदीप्त हुई थी जिसके कारण उन्होंने विश्व को भगवान द्वारा बनाई गई सृष्टि के दुख का अन्त करने व दुखों के निवारण हेतु वैराग्य लिया।
गृहस्थ जीवन त्याग कर संसार में सत्य की खोज में ज्ञान प्राप्ति हेतु निकल पडे़ और अपने उपदेशो, संदेशो व सिद्धान्तों के माध्यम से विश्व में मंगलकारी सृष्टि की स्थापना की कामना करते हुए
संसार में दुख को समाप्त कर जीवन के सत्य को समाप्त कर अपने दुख व वेदना को अवलम्ब बनाकर सुख वह सन्तुष्टि की प्राप्ति का संदेश दिया।
ऐसी ही उदात्त बुद्ध की विश्व मंगल की कामना से उद्धरित करूणा उनके काव्य का प्राणतत्व बन गयी है। तभी तो वह विरह रूपी कमल का जन्म वेदना में मानकर करूणा में उसका स्थायी निवास बताती है।
महादेवी वर्मा के काव्य संग्रह ’नीरजा‘ की पंक्तिया प्रस्तुत है-
विरह का जलजात, जीवन, विरह का जलजात।
वेदना मे जन्म, करूणा में मिला आवास,
अश्रु चुनता दिवस इसका, अश्रु गिनती रात।
विरह का जलजात’’।
(नीरजा, महादेवी वर्मा, पृष्ठ संख्या 18 )
बुद्ध के समान महादेवी भी वेदना, पीड़ा, दुख व करूणा के माध्यम से विश्व कल्याण की कामना करती है। दुख के प्रति इतनी आसक्ति है कि- वे बिना दुख के लक्ष्य प्राप्ति सम्भव ही नहीं मानती ।
दुख भाव की अतिशय प्रबलता के कारण वे अपने आराध्य देव को ही दुख का प्रतिरूप मान बैठती हैं। इस प्रकार के उदात्त दुख, असीम वेदना,
पवित्र पीड़ा और सुखमय स्वानुभूति के माध्यम से मनुष्य अवश्य ही अपने जीवन में सुख, शान्ति और सन्तुष्टि की प्राप्ति कर सकता है।
किसी अन्य के दुख में सम्मिलित होकर, उनकी पीड़ा में खोकर उनकी वेदना की अनुभूति करके संवेदनात्मक स्तर पर उससे स्वयं को निमग्न कर देना ही बौद्ध दर्शन का सिद्धान्त है।
सर्व दुख में भी ’आत्मिक सुख व शान्ति‘ की प्राप्ति कर विश्वकल्याण विश्व शान्ति व समष्टि सुख प्रदान करना ही भगवान बुद्ध का संदेश रहा है।
इसी प्रकार महादेवी जी के व्यक्तित्व में भी अपने दुख बोध के कारण उनके अन्तर्मन में करूणा का सागर उमड़ता है। बादलो की भांति वर्षा कर,
पुष्पों की भांति सुवास प्रसारित करके दीपक की भांति स्वयं जलकर भी संसार को प्रकाशमान करने जैसी विश्व कल्याण की भावना से डूबती थी।
किसी अन्य के दुख व वेदना में स्वयं को लीन करना वेदनानुभूति के माध्यम से जुड़ना ही कवयित्री के जीवन की सफलता का परिचय है कवयित्री स्वयं कहती है-
दुख का युग हूँ या सुख का पल
करुणा का घन या मरु निर्जन
जीवन क्या है मिल कहाँ
सुधि भूली आज समूल।“
(यामा, महादेवी वर्मा, पृष्ठ संख्या 108 )
ऐसी सुखमय पीड़ा में भला कौन बहना न चाहेगा। वेदना के सागर को आसमा से झरने वाली अमृत का धारा के समान अहसास करना, पीड़ा को शीतल व सुगन्धित चन्दन सा गुण प्रदान करना,
तुफानों में भी प्रिय के आलिंगन में सुखमय छाया प्राप्त करना और संसार की असफलताएं , दुख, ग्लानि, निराशा समस्त दुखकारी तत्व भी विजय सन्तुष्टि और शान्ति प्रदान करने लगे तो ऐसे आँसू ,
ऐसी पीड़ा, ऐसी वेदना संसार के उस सुख से भी अधिक सुखमय है जो क्षणिक मानव के जीवन में आता है और पल भर में लुप्त हो जाता है।
क्योंकि महादेवी के सुख की अनुभूति तो असीम और आरम्भिक है। यही नहीं बल्कि दुख में अपने प्राणों को गला कर अपने जीवन को समाप्त कर नव्य जीवन निर्माण का कारण बताते हुए कहती हैं –
गल जाता लघु बीज असंख्यक
नश्वर बीज बनाने को।“
(यामा, महादेवी वर्मा, पृष्ठ संख्या 150)
अतः स्पष्ट है कि भगवान बुद्ध के सिद्धान्तों के समान महादेवी भी अपने प्राणों व अपने जीवन के समस्त सुख व वैभव को त्याग कर संसार के सुख व कल्याण की कामना करती है।
कवयित्री महादेवी की दुखवादी अभिव्यक्ति नितान्त मौलिक है। कवयित्री ने अपने व्यक्तित्व वेदना के माध्यम से लोक वेदना को मूर्तिमान करने का सफल प्रयत्न किया है।
संसार में कवयित्री ने जो दुख के मोती चुने हैं, उनमें उनका काव्य अनुभूतिमय संवेदनात्मक, हृदयस्पर्शी एवं मधुर बन पड़ा है क्योंकि वे दुख का ही जीवन का सबसे सुन्दर काव्य मानती है।
कवयित्री ने अपने काव्य संग्रह ’यामा‘ ने दुख के महत्व को उजागर करते हुए लिखा है –
’’दुख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है, जो संसर को एक सूत्र में बांधने की क्षमता रखता है, एक बूंद आसू भी जीवन को अधिक उर्वर बनाये बिना नही रहता।
मनुष्य सुख को अकेला भोगना चाहता है पर दुख सबको बाँट कर। विश्व जीवन में अपने जीवन को विश्व वेदना में अपनी वेदना को इस तरह मिला देना जैसे एक बूँद समुद्र में मिल जाती है सच्चे कवि की यही मोक्ष हैं।‘‘
(यामा, महादेवी वर्मा, पृष्ठ संख्या 12)
महादेवी स्वयं स्वीकार करती हैं कि –
“बचपन से ही महात्मा बुद्ध के प्रति भक्तिमय अनुराग होने के कारण उनके संसार को दुखात्मक समझन वाले दर्शन से मेरा असमय ही परिचय हो गया था। अवश्य ही इस दुखवाद को मेरे हृदय में एक नया जन्म लेना पड़ा..।“
(यामा, महादेवी वर्मा, पृष्ठ संख्या 12)
महादेवी ने अपने जीवन में दुख के महत्व को भली – भांति समझ लिया है उनका सम्पूर्ण जीवन ही वेदना में निमग्न प्रतीत होता है।
उन्होने स्वीकार किया कि दुख के माध्यम से न केवल अपने जीवन को वरन मानवता को भी सुखी तथा समृद्ध बनाया जा सकता है।
यही लोकमंगल और लोककल्याण की भावना उनके काव्य को अनायास ही बौद्ध दर्शन से जोड़ देती हैं।
महादेवी के अनुसार वेदना दुखमूलक नहीं है। वह प्रिय तथा मुक्ति का साधन है। इसी लिए उनके काव्य में वेदना को प्रधान स्थान प्राप्त है
और उनका काव्य दुखवादी होते हुए भी मधुर संगीत के समान गुंजन उत्तपन्न करता है तथा परम आनन्द की अनुभूति प्रदान करता है।
महादेवी ने अपने दुखमय जीवन को ही पवित्र और शान्तिपूर्ण बनाकर मन को मंदिर मान लिया है-
’’सूने मानस मंदिर में
सपनों की मुग्ध हसी में
आशा के आहवाहन में
बोते की चित्रपटी में।“
(नीहार, महादेवी वर्मा, पृष्ठ संख्या 71)
महादेवी की वेदनानुभूति मे वह स्वयं आराधिका है और उनके इष्टदेव चिर सुन्दर और असीम हैं। अतः उनका दुख भौतिक न होकर आत्मिक प्रतीत होता है।
कवयित्री अपने व्यक्तिगत जीवन की वेदना को उदात्त बनाना चाहती है। इसी उद्देश्य से उन्होने अपने जीवन के समस्त दुख वेदना को अपने काव्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया।
जिससे स्पष्ट हो जाता है कि कवयित्री की विरहानुभूति की तीव्र अभिव्यक्ति का कारण एक यह भी है, कि कवयित्री ने अपनी व्यक्तिगत वेदना को उदात्त बनाने का सफल प्रयास किया।
महादेवी वर्मा ने विश्व वेदना में अपनी वेदना को गला कर देखा है, क्योंकि उनका विश्वास है कि उसी के द्वारा कवि अपना कविकर्म पूर्ण करने की क्षमता रखता है।
विश्व जीवन मे अपने जीवन की विश्व वेदना मे अपनी वेदना को इस प्रकार मिला देना, जिस प्रकार एक जल बिन्दु समुद्र में मिल जाता है, कवि का मोक्ष है।
कवयित्री का काव्य विश्व के कण कण में करूणा की पावन लहर उमड़ती है। इनकी करूणा व वेदना जीवन में स्फूर्ति एवं प्रेरणा का संचारण करती है। यह जीवन के संघर्षों से पार होने की शक्ति प्रदान करती है।
ऐसी उज्जवल और उदात्त भावना उत्पन्न करती है जिसमें दुख भी पवित्र होकर विषाद के तम से आनन्दानुभूति के प्रकार को प्राप्त करता है।
व्यष्टि की भावना से निकल कर समष्टिगत हो जाता है। करूणा एवं वेदना को महत्व प्रदान करते हुए वे स्वयं कहती है कि करूणा हमारे जीवन ओर काव्य में बहुत गहरा सम्बन्ध रखती है।
वैदिक काल में ही एक और आनन्द उल्लास की उपासना होती थी और दूसरी और इस प्रवृत्ति के विरूद्ध एक करूणा भाव भी पाया जाता था।
एक और पशुबलि प्रचलित थी ओर दूसरी और माहिस्यात् सर्वभूतानि का प्रचार हो रहा था। इस प्रवृत्ति ने आगे विकास पाकर जैनधर्म के मूल सिद्धान्तों की रूपरेखा दी ।
बुद्ध द्वारा स्थापित संसार का सबसे बड़ा करूणा का धर्म भी संसार को नही छोड़ता । परमतत्व की व्यापकता और इष्ट की पूर्णता के साथ अपनी सीमा और अपूर्णता की अनुभूति ही निगुण,
सगुणवादियों के विरह की तीव्रता का कारण है। अतः स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि वेदनानुभूति महादेवी के काव्य का प्रधान जीवन – दर्शन है।
जगत ओर जीवन की निस्सरता, करूणा, दुख, वेदना, निराशा से व्यथित होकर उन्होंने दुखवाद का सृजन किया। उनपर महात्मा बुद्ध के ’सर्वदुखस‘‘ की भावना का प्रत्यक्ष प्रभाव दृष्टव्य होता है।
निःसन्देह कहा जा सकता है कि महादेवी का जीवन – दर्शन और साहित्य सृजन विरह वेदना ओर प्रणय भावना की नीति से आप्लावित है।
महादेवी वर्मा के काव्य की इस अद्भुत झांकी के साथ ही अब लेख को समाप्त करती हूँ। आप सभी स्वस्थ रहें, मस्त रहें और सुरक्षित रहें। नमस्कार